मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

कब टूटेगी सिंहासन की बेहोशी?

शैलेश कुमार

मित्रों पूछता हूँ मैं आज तुमसे
कब लाओगे बुद्धि अपनी ठिकाने पर?
क्या-क्या गुल खिलाओगे और
अब तो रख दी मुंबई भी निशाने पर।

खोकर भी सैकडों सपूतों को
टूटी नहीं तुम्हारी खामोशी।
जल रहा है देश आज पर
कब टूटेगी सिंहासन की बेहोशी?

सत्ता की लालसा लिए हो चित्त में
ध्रितराष्ट्र हैं मौन स्वयम सूत के हित में।
वरना वो जहरीली आँखें फोरवा देते
अब तक अफज़ल पर कुत्ते छुड़वा देते।

कहते हैं वे भारत के रक्षक हैं
पर अफज़ल जैसों के संरक्षक हैं।
बेशक सारे भारत का सर झुक जाए
उनकी कोशिश है ये फंसी रुक जाए।

क्या अब भी निर्णय लेगी सरकार
और फंसी पर चढेंगे ये गद्दार?
क्या उठेगा देश अब एक-साथ
डाले मराठी-बिहारी हाथों-में-हाथ?

एक बार फिर दहते स्वर में इन्कलाब गाना होगा
फंसी का तख्ता जेलों से संसद तक लाना होगा।
दिलों में वंदे मातरम को जगाना होगा
बुलंद इरादों से आतंक को हराना होगा।
जिंदगी जीने का भी वक्त नहीं
शैलेश कुमार
खुशी इतनी की भरा है दामन
पर हसने को थोड़ा वक्त नहीं।
दिन-रात दौड़ रही दुनिया ऐसे
जिंदगी जीने का भी वक्त नही।
जिम्मेदारियों का अहसास तो है
पर निभाने की ताकत नहीं।
दिन-रात दौलत कमाकर भी
संतुष्टि की चाहत नहीं।
उड़ने की ख्वाहिश तो है
पर पंख उगाने की चाहत नहीं।
बुलंदी के सितारे छूकर भी
मन को मिली राहत नहीं।
जगते अरमान दिलों में हैं
पर झाँकने का वक्त नहीं।
सिसकियाँ ले लेकर भी
आंसू बहने का वक्त नहीं।
एहसास तो है माँ की लोरी का
पर माँ को माँ कहने का वक्त नहीं।
रिश्तों को तो सब मार चुके
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक्त नहीं.

शनिवार, 8 नवंबर 2008

राजनीतिक आतंकवाद के निशाने पर देश

शैलेश
कुमार

आतंकवाद के डर से पूरा देश थर - थर कांप रहा है। दहशत इस प्रकार छाई हुई है की लोगों को अब घर से बहार निकलकर भीड़-भाड़ वाले इलाके में जाने से भी डर लगता है। खैर ये तो हुई उस आतंकवाद की बात जो देश के बाहर की शक्तियां अंजाम दे रही हैं हमारे देश में। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है की उससे भी भयानक और कई खौफनाक आतंकवाद का दूसरा चेहरा अपने ही देश में कुछ देशद्रोहियों की छत्रछाया में पल रहा है। इस आतंकवाद का नाम है राजनीतिक आतंकवाद जो कि गोली और बारूद वाले आतंकवाद से कहीं शक्तिशाली है।

हमारा देश जो कि अपने पास विश्व के सबसे बड़े संविधान होने का दावा करता है, जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने पर गर्व करता है, उसकी सच्चाई यह है अन्दर-ही-अंदर वह उतना ही खोखला है। इस देश कि राजनीति अभी भी प्रारंभिक अवस्था में है। राजनेताओं के व्यवहार को देखकर तो ऐसा लगता है कि अभी-अभी पेट से बहार निकले हैं और जैसे पिल्ले रोटी के तोकडे के लिए आपस में लड़ते हैं न, वैसे ही वे भी सत्ता के छीना-झपटी कर रहे हैं। अब तक तो यह लडाई केवल उग्र बातों और थोडी बहुत गलियों तक ही सीमित थी। पर अब तो एक-दूसरे का कालर पकड़ना, थप्पर मारना, घुसे बरसना और धक्का देकर ज़मीन की धूल चाटना भी इसमे जुड़ गया है। शायद अब वह दिन दूर नही जब पिस्तौल और रायफल भी खुले आम हाथों में लेकर वे सत्ता की इस लडाई को लडेंगे।

हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी?
आओ विचारे आज मिल, ये समस्याएं सभी

नई पार्टी बनाने के बाद सत्ता सूख से दूर रहने के बाद राज ठाकरे ने अंततः उत्तर भारतीयों पर हमला कर मराठियों के प्रति अपने प्रेम को दिखाने की चेष्टा की ताकि अगले चुनाव में फ़ायदा हो जाए। ठाकरे की इस हरकत का जवाब देने के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में जबरदस्त प्रदर्शन हुए। अब भला हमारे मेधावी राजनेता जिन्होंने वोट बैंक निर्माण में गोल्ड मैडल जीता हुआ है, इस परिस्थिति का फ़ायदा उठाने में कैसे पीछे रह सकते थे? बस शुरू हो गई लडाई, अपने आप को जनता का सच्चा हमदर्द बताने की। नीतिश ने अपने सांसदों से इस्तीफा देने को कहा तो लालू ने नहले पे दहला मरते हुए संसद क्या बिहार में अपने विधायकों के भी इस्तीफे की पेशकश कर डाली। अब जब नीतिश सरकार के डोलने की स्थिति आई तो वे इसे लालू की चाल बताने लगे सरकार को गिराने की। और लालू यादव जिन्होंने रातों-रात बूटा सिंह के बिहार के राज्यपाल होने के दौरान नीतिश सरकार को गिराया था, महाराष्ट्र सरकार को बर्खास्त कर वह राष्ट्रपति शासन लगाने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। फ़ायदा कम रहे हैं ये राजनेता और आंसू बहा रही है आम जनता। वो जनता जो कभी धरम, कभी जात-पांत, तो कभी क्षेत्रवाद तो कभी भाषावाद के नाम पर शूली पर चढ़ती आई है। जो इन सत्तालोलुप नेताओं की सत्ता प्राप्ति मुहीम में हमेशा से पिसती आई है। वो आम जनता जो घुट-घुट कर जी रही है और अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है केवल इन राजनीतिक दरिंदों की वजह से। ऐसे में अगर इसे राजनीतिक आतंकवाद की संज्ञा न दे तो यह और क्या हो सकता है?

गोली और बम तो खैर एक बार में जान ले लेते हैं, पर ये राजनीतिक आतंकी तो हर पर हमारा खून चूस रहे हैं। अभी जब छः राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं तो इन पिल्लों की खीचा-तीनी, एक-दूसरे पर खीज, और लातों और घूसों की बरसात आप खुले आम टेलिविज़न चैनल्स पर देख सकते हैं। इनके लिए टिकेट ज्यादा जरुरी है। और सत्ता में आने की बाद अय्याशियाँ मानना। क्या आम जनता, क्या विकास, इन्हे पहले अपना बड़ा सा हाथी वाला पेट भरने से फुर्सत मिले तब तो।

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती

अफ़सोस तो तब आता है जब हम खामोश बैठ जाते हैं। ये राजनीतिक आतंकी हमारे घरों तक में घुस कर आतंक फैला रहे हैं, पैसों के लिए बाहरी दुश्मनों को आमंत्रण देकर हमारा सूख-चैन लुटा रहे हैं और हम चुप-चाप नज़ारा देख रहे हैं। क्या हम उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब वे केवल सरकार ही नही हमारे घर, उसकी संपत्ति और बहु-बेटियों को भी हथियाने पर भी उतारू हो गायेंगे, और हम एक कोने में दुबककर सिसकियाँ लेंगे?

दोस्त तूने हमे बहुत आजमा लिया,
वह दिन खुदा करे कि तुझे आजमायें हम

मत भूलिए कि राजनीतिक आतंकवाद को शह देने का काम हम कर रहे हैं। हमारा छोटा सा सामूहिक प्रयास इस आतंकवाद को जड़ से उखड फेंक सकता है। और अगर राजनीतिक आतंकवाद पर हमने काबू पा लिया तो यकीन मानिये कोई भी आतंकवाद, दंगा और बाहरी शक्तियां हमारा कुछ नही bigaad sakti। इस लोकतंत्र का अस्तित्व बचने की जिम्मेदारी हमारी है। सब-कुछ हमारे हाथों में है, बस जरुरत है ख़ुद पर भरोसे की और एक संकल्प की कि राजनीतिक आतंक और नही सह सकते हम, उखड फेकेंगे अब हम इसे।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

जब लगाई है आग तो रोते हो क्यों?

शैलेश कुमार

मुंबई में बिहारियों के साथ जो कुछ भी हुआ उसकी आग में बिहार तो जल ही रहा है पर उससे यह देश भी अछूता नही रहा अब। रेलों को निशाना बनाने से केवल बिहार ही नही बल्कि पूरे देश की यातायात व्यवस्था चरमरा गई है। छात्रों पर नियंत्रण पाना पुलिस के लिए कठिन ही नही नामुमकिन बन पड़ा है। राज्य सरकार, केन्द्र सरकार, विपक्षी पार्टियाँ, मीडिया सभी रो रहे है, चिल्ला रहे हैं। पर यह रोना चिल्लाना क्यों ? यह आग आख़िर आप लोगों ने ही तो लगाई है ना!

पूछता हूँ मैं रेल मंत्री से - कहाँ सो रहे थे आप जब मुंबई में रेलवे की परीक्षा देने गए बिहारी छात्रों पर राज ठाकरे के आदमी डंडे और पत्थर बरसा रहे थे। वे छात्र जिन्होंने रेलवे में किसी प्रकार से अपना भविष्य बनाकर अपने माता-पिता का सहारा बनना चाहते थे, उनके सपनों की पिटाई कर उसे ऐसा अधमरा कर दिया गया की आने वाले लंबे समय तक उनके मन में सिहरन बरक़रार रहेगी। जब आपको पता था की मुंबई में राज ठाकरे ने बिहारियों और उत्तर भारतीयों के खिलाफ मुहीम जारी कर राखी है तो आपने छात्रों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम क्यों नही उठाये? इसका हम क्या मतलब निकले - आपने जन बुझ कर राज से पंगा लेकर छात्रों की जान को खतरे में डाला। और अब जब पुरा बिहार प्रतिशोध की आग में जल रहा है तब भी आपने उसे शांत करने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। आपने यह कह कर पल्ला झार लिया की यह राज्य सरकार का काम है। छोरिये रेल मंत्रालय को, लेकिन एक राजनेता और बिहार से संबध रखने के नाते तो आपको शान्ति कायम करने की कोशिश करनी चाहिए थी।

और नीतिश कुमार जी, आप तो अपने आप को बिहार वासियों का संरक्षक कहते हैं। फिर आप इस हिंसा को शांत करने की बजाई केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराने में अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? यह संपत्ति जिसका नुक्सान हो रहा है वह केवल रेलवे की नही इस देश और आपके राज्य की भी है। एक नागरिक के तौर पर यह आपकी भी संपत्ति है। आपने सर्वदलीय बैठक तो बुला ली पर आपने आरोप-प्रत्यारोप करने के अलावे और क्या किया? अरे थोडी देर के लिए तो घटिया राजनीती का मोह त्याग कर बहार आइये और इस आग में झुलस रहे छात्रों की जिंदगी बचने की कोशिश कीजिये।

केन्द्र की यू पी ऐ सरकार से मैं पूछना चाहूँगा आपने कर्णाटक और उड़ीसा में हिंसा होने पर राष्ट्रपति शाशन लगाने की सिफारिश करने में बड़े जोश से हिस्सा लिया, पर महाराष्ट्र में आपका यह जोश कहा चला गया? क्या सिर्फ़ इसलिए की वहां कांग्रेस की सरकार है?

अंत में मीडिया से मैं पूछना चाहूँगा आपने किस हद तक अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह किया? क्या राज ठाकरे के भड़काऊ भाषणों को अखबारों में छापना और चैनलों पर दिखाना जरुरी था। अगर थोड़े पैसे कम कमा लेते आप तो आपका क्या बुरा हो जाता? क्या देश एकता भी अब आपके लिए कोई मायने नही रखती? और अब जब राज्य में लगातार हिंसा की वारदातें हो रही हैं तो कितनी बार आपने शान्ति बनाये रखने की अपील की है? सही बात है भाई, आपको जली हुए रेल और राज ठाकरे के आसपास घुमने से फुर्सत मिले तब तो।

और देशवासियों से उनका ही एक भाई होने के नाते मैं यही कहूँगा - आप तो होशियार हैं। नेताओं के दाव पेंच आप भी अब भली भांति समझने लगे हैं। फिर क्यों उनकी भड़काई हुए बातों पर जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं। नहीं कहता आपसे गाँधी बन जाने को, पर थोड़ा सोच विचार कर सुख और शान्ति तो बना के रखी जा सकती है ना। गुस्सा होना स्वाभाविक है, पर स्थिति को भी समझिये और जिसने गलती की है उसे अपने आप को मिली ताकत से सबक सिखाईये। क्यों निर्दोषों को इस आग में जला रहे और जल रहे हैं आप? थोड़ा सोचिये, और कदम उठाईये।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

मेरे जन्मदिन की वो शाम

शैलेश कुमार

२२ अगस्त की उस शाम को भुलाना काफी मुश्किल होगा मेरे लिए। वो मेरे २१वे जन्मदिन की शाम थी। लेकिन मेरे सर पे उस दिन सबसे बड़ा बोझ अपने कॉलेज में न्यूज़ बुलेटिन को एडिट कर पूरी तरह से तैयार करना था। मेरे ग्रुप में पाँच लोग मिलकर काम कर रहे थे। दूसरे दिन न्यूज़ बुलेटिन को अपने एच ओ डी को दिखने की अंतिम तिथि थी। अन्यथा हमारा हाथ से वह अवसर निकल जाता।
हमारे ग्रुप का एक सदस्य तो काफी दिनों से कश्मीर में फंसे होने की वजह उपस्थित नही था। चार लोग ही मिलकर काम कर रहे थे। पर उस दिन ग्रुप के बाकी तीनो सदस्यों को काफी जरुरी काम आन पड़ा था तो उन्हें जन पड़ा। अब शाम के पाँच बज चुके थे। मैं अपने कॉलेज के स्टूडियो में अकेला बचा था। एडिटिंग शुरू की। काफी मशक्कत करनी पड़ी। दोस्तों के बधाई संदेश भी लगातार आ रहे थे। पर जबाब देने के लिए भी समय नही था मेरे पास उस समय। मैंने लगातार कोशिश जारी राखी। एडिटिंग चलती रही। अंततः रात पौने आठ बजे के आसपास मेरी एडिटिंग पूरी हो गई और न्यूज़ बुलेटिन बनकर तैयार हो गई। उस समय जो मेरे चेहरे पर खुसी झलक थी वह देखने लायक थी। मेरे साथ स्टूडियो में वह की देखरेख करने वाले रवि सर ने लगातार धीरज रख स्टूडियो में ही मेरे काम के ख़त्म होने का इंतज़ार करते रहे। इसके लिए मैं उनका आभारी रहूँगा।
उस दिन रात में मेरे ही ग्रुप के सदस्यों ने मेरा साथ न देने पर संदेश भेजकर खेद जताया। पर मुझे इसका कोई अफ़सोस नही था क्योंकि उनका काम भी बहुत ज्यादा जरुरी था। मेरी दोस्त नूतन ने रत में मोबाइल से संदेश भेजकर मुझे एडिटिंग को सफलतापूर्वक पूरा करने की लिए बधाई दी और जन्मदिन की एक बार पुनः सुभकामनाएँ दी। मुझे बड़ा अच्छा लगा।
अगले दिन न्यूज़ बुलेटिन को पूरी कक्षा में दिखाया गया। मेरे एच ओ डी काफी प्रसन्ना हुए और थोडी हिदायत देकर उसे और अच्छा बनने को कह गए।
शायद जन्मदिन मानाने का वह सबसे अच्छा तरीका था। इतनी अच्छी तरह से आज तक मैंने अपना जन्मदिन नही मनाया था। उस दिन जो मान में काम करने की ललक थी, एक जूनून था, मैं चाहता हूँ की वह जूनून हमेशा जिन्दा रहे।
मेरा मिशन जौर्नालिस्म अभी भी काफी दूर है। पर मुझे पूरा विश्वाश है की अगर इसी प्रकार की ललक भगवान् की कृपा से मेरे अंदर जिन्दा रही तो शायद इस मिशन को पूरा होने में ज्यादा समय नही लगेगा। आशा करता हूँ की अगले वर्ष जब मैं अपना जन्मदिन मनाऊँ तो उस समय मैं अपने पसंदीदा न्यूज़ चैनल में रिपोर्टिंग और एडिटिंग करता रहूँ।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

राजनीति की आड़ में देश को तोड़ने को कोशिश

शैलेश कुमार

वह देश जो अनेकता में एकता के लिए विश्व विख्यात है आज उसकी वह एकता खतरे में पड़ी मालूम होती है। स्वतंत्रता के ६२ सालों के बाद आज देश भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बंटता नज़र आ रहा है। देश से पहले राज्यों के हितों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। संविधान में राज्यों की बीच जिस एकता की बात कही गई है वह महाराष्ट्र में पिछले कुछ समय से हो रही घटनाओं के बाद खटाई में पड़ती दिखाई पड़ रही है।

महाराष्ट्र नव सेना के सुप्रीमो राज ठाकरे ने जैसे यह ठान लिया है की अब वे उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र में नही रहने देंगे। उनकी पार्टी शिवसेना के साथ मिलकर मुंबई में उत्पात मचा रही है। उत्तर भारतीयों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। रेलवे की परीक्षा देने आए बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्रों को बेरहमी से पीटा गया। पहले भी बिहारी मजदूरों को क्रूरतापूर्वक निशाना बना कर उन पर जानलेवा हमला बोला गया। देश के चहेते अभिनेता अमिताभ बच्चन के खिलाफ भी उन्होंने असम्मान दर्शाया। राज ठाकरे ने मुंबई को अपने बाप की संपत्ति तक कह डाला। और अब वो कह रहे हैं की अगर पुलिस दम है तो वे उन्हें गिरफ्तार करके दिखाए।

ऐसे में राज ठाकरे को एक विद्रोही, देशद्रोही या फ़िर आतंकवादी कहा जाए तो मुझे नही लगता की इसमे कोई ग़लत है। आश्चर्य होता है यह देखकर की इतना सब कुछ होने के बाद राज ठाकरे खुले आम घूम रहा है और लोगो को लगातार धमकियाँ दिए जा रहा है। केन्द्र की कांग्रेस सरकार जो की भाजपा शाशित राज्यों में गिरिजाघरों पर हमले के बाद गला फार कर चिल्लाने लगी, क्या महाराष्ट्र में राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों पर धाये जा रहे जुल्म की आवाज़ उसे सुनाई नही पर रही है। क्या इस मामले में वह बहरी बन गई है। सिर्फ़ इसलिए की राज्य में कांग्रेस की सरकार है?

शर्मा आनी चनिये इस सरकार को जो की राजनीती का घटिया खेल खेलने से बाज नही आ रही। और राज ठाकरे जो अपने आप को मराठियों का रक्षक बता रहे हैं, क्या जनता नही जानती की उन्हें महाराष्ट्र का कितना ख्याल है और अपनी राजनीती का कितना? किसे मुर्ख बनाए की कोशिश कर रहे हैं वो? एक नेता जो की मानवता की परिभाषा को नही समझ सकता वो क्या किसी की रक्षा कर सकता है?

मुझे ग़लत मत समझना। इस लेख के द्वारा मेरी यह कतई कोशिश नही है की मैं उत्तर भारतीयों का पक्ष लेकर किसी राज्य विशेष या व्यक्ति विशेष की आलोचना करूँ। किसी भी राज्य के द्वारा अपने राज्य के वाशिंदों की रक्षा करना जरुरी है। और इसमें कुछ भी ग़लत नही है। लेकिन उसका भी एक तौर-तरीका होता है। शान्ति से बैठकर और विचार-विमर्श कर किसी भी समस्या का हल निकला जा सकता है। इस प्रकार से हिंसक गतिविधियों को अपनाकर और खुल-आम दादागिरी दिखाकर आप कुछ हासिल नही कर सकते।

भारत अपनी शान्ति के लिए ख्यात रहा है। एकता इसकी सबसे बडी पूंजी है। इसके साथ खिलवाड़ करने वाली को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। अगर सरकार राज ठाकरे को सजा दिलाने में विफल है तो जनता को अब आवाज़ उठानी होगी। जब हमारे प्रतिनिधि हमारी सुध न ले तो फ़ैसला जनता के हाथों में ही छोड़ देना चाहिए। उठाइए आवाज़ और हिला दीजिये राज ठाकरे की कुर्सी को, जिसे की सबसे शक्तिशाली होने का झूठा अभिमान चढा है।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

शुरू हुई महासंग्राम की उलटी गिनती

शैलेश कुमार

भाजपा और कांग्रेस के बीच एक जबरदस्त चुनावी मुकाबले की घड़ी अब नज़दीक आ गई है। जहाँ कांग्रेस पर महँगी और आतंकवाद और जैसे मुद्दों पर गाज गिरने वाली है वहीं भाजपा एक बार पुनः अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को लेकर सवालों के घेरे में आ खड़ी हुई है।

निर्वाचन आयोग के द्वारा पाँच राज्यों में चुनाव की तिथियों की घोषणा करने के बाद अब राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गई हैं। इन चुनावों में अब एक महीने से भी कम का वक़्त रह गया है।

जहाँ केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी पुनः पाँच वर्षों के लिए सत्ता में आने की पुरजोर कोशिश में लगी है वहीं मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस को चारो खाने चित कर इस बार सत्ता में वापसी के लिये जी-जान लगाती नज़र आ रही है।

राजनीतिक दलों के पास इस बार चुनाव में भुनाने के लिए ऐसे कई गरमा-गरम मुद्दे मौजूद हैं जिनका अगर सही से इस्तेमाल किया गया तो वे चुनाव के परिणामों में भरी उलट-फेर कर सकते हैं।

बीते कुछ समय में जिस प्रकार से अंतराष्ट्रीय बाज़ार लुढ़का है उसने भारतीय आर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी है। भारतीयों बाज़ारों का बुरा हाल है और इसकी प्रगति पर एक लगाम सा कस गया है।

मुद्रास्फीति की दरों में लगातार वृद्धि और बढती महंगाई के इस दौर में त्याहारों की चमक कहीं खो सी गई है। और-तो-और, सामान्य घरेलू उत्पादों जैसे सब्जी, तेल, गैस और राशन की आसमान छूती कीमतों ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है। ऐसे में आगामी विधान सभा चुनावों में अगर जनता का गुस्सा सत्तारूढ़ दलों पर टूट कड़े तो इसमे कोई चौकाने वाली बात नही है।

भले ही मौजूदा कांग्रेसी सरकार ने परमाणु मुद्दे पर तटस्था दिखाते हुए इसमे विजय प्राप्त की हो लेकिन कांग्रेस को इससे अगले महीने पाँच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में कोई खास लाभ नही मिलने वाला है। अभी भी भारत की जनता के लिए परमाणु उर्जा से ज्यादा मायने रखती है दो वक्त की रोटी। जिस देश में आज भी तकरीबन चालीस प्रतिशत जनसँख्या गरीबी रेखा से नीचे की जिंदगी गुजर-बसर कर रही है और लगभग इतनी ही निरक्षर है, उसे परमाणु उर्जा का महत्व भला क्या समझ में आएगा, यह सचमुच में एक विचारनीय प्रश्न है।

पिछले कुछ महीनो में आंतकवाद की बढती घटनाओं और लगातार हो रहे धमाकों की वजह से हुए जान-माल के नुकसान से लोगों के अंदर और सरकार के प्रति भारी गुस्सा है। लोकसभा चुनाव-२००४ के दौरान आंतकवाद के मुद्दे पर राजग सरकार को आदे हाथों लेने वाली संप्रंग सरकार की इश्थी आज उससे भी कही ज्यादा डावांडोल नज़र आ रही है। प्रधानमंत्री जहाँ एक ओर महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष और अपने ही गठबंधन के घटक दलों के द्वारा लगातार की जा रही आलोचनाओं से अलग-थलग पड़ गए हैं वही दूसरी ओर आंतकवाद ने भी उनकी नाक में दम कर रखा है।

राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में भी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आंतकवाद के ख़िलाफ़ नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए आंतकवाद पर नियंत्रण के लिए पोता जैसे सख्त कानून को बहल करने की अपनी मांग दोहराई।

गौरतलब है की परमाणु मुद्दे पर कांग्रेस के साथ आई समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह एक बार फिर कांग्रेस से दूर जाते दिखायी पड़ रहे हैं। पार्टी के नेता अमर सिंह ने अभी हाल में घटित जामिया एनकाउंटर को फर्जी बताकर आंतकवाद मुद्दे पर सरकार को कठघरे में ला खड़ा किया है। साथ ही मुस्लिम समुदाय एनकाउंटर की बात को पचा नही पा रह है। इस घटना के बाद सरकार और मीडिया ने इस समुदाय के प्रति जो रवैया अपनाया है उससे वे कहीं ज्यादा आहत हुए हैं और उससे फूटने वाला रोष आने वाले चुनावों में कांग्रेस को पिछले पांवदान पर धकेल दे तो उसमे कोई आश्चर्य वाली बात नही होगी।

भाजपा शायद इस प्रकार की अनुकूल परिस्थितियों को पा कर खुश हो सकती है किंतु उसके लिए भी रास्ता उतना साफ़ नही है जितना की यह नज़र आता है। भाजपा शासित राज्यों उड़ीसा व कर्णाटक में अल्पसंख्यकों पर हमले के बाद पार्टी की छवि को थोड़ा ठेस अवश्य पंहुचा है। केन्द्र के द्वारा राज्य में धारा ३५६ लगाने की धमकी से सरकार के विरुद्ध उपज रही असंतोष की भावना को और भी बल मिला है।

राजस्थान में वसुंधरा राजे को अपनी ही पार्टी के कुछ लोगों से खतरा हो सकता है। ऐसा माना जाता है की भाजपा के शीर्ष नेताओं में गिने जाने वाले जसवंत सिंह की श्रीमती राजे से कुछ जमती नही है। बीते वर्ष जसवंत सिंह की पत्नी ने भाजपा द्वारा वसुंधरा राजे को माँ दुर्गा के रूप में पोस्टर में चित्रित किए जाने को लेकर उनके खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर इस दावे को और भी पुख्ता बना दिया था।

मध्य प्रदेश में भी भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बिजली, पानी और सुखा जैसी समस्याओं को लेकर विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा आलोचनाओं के घेरे में हैं। राज्य सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान यूँ तो कई विकास योजनाओं को हरी झंडी दिखाई है लेकिन मध्य प्रदेश की जनता इसे पार्यप्त नही मानती। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और नए युवा नेताओं के नेतृत्व में यहाँ कांग्रेस कुछ नया कर दिखने को लालायित है।

दिल्ली वासियों की पसंदीदा मुख्यमंत्री कहलाने वाली शीला दीक्षित की गद्दी भी इस बार हिलती नज़र आ रही है। शहर में ब्लू लाइन बसों को नियंत्रित करने में असफल और महिलाओं की सुरक्षा करने में विफल कांग्रेसी सरकार के सर पर पराजय की तलवार लटकती नज़र आ रही है।` शहर में लगातार बढ़ रही आंतकी गतिविधियों ने विपक्षी भाजपा को एक और मुद्दा दे दिया है।

मुद्दे तो बहुत हैं और इन मुद्दों की बुनियाद पर इस बार चुनावी राजनीती में बड़े परिवर्तन दिखने के आसार बल पकड़ते दिखाई पड़ रहे हैं। अब किसकी होगी विदाई और किसका होगा अभिनन्दन, यह तो आने वाले अगले दो महीनो में ही साफ़ हो पायेगा। पर एक चीज़ तो तै है की इस बार इन पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों में भारी टक्कर दिखने की उम्मीद है।