बुधवार, 30 दिसंबर 2009

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क्या, तोड़ दें देश को?



शैलेश कुमार

देश का बंदरबांट का अभियान शुरू हो गया है. तेलंगाना के लोगों ने बाज़ी मार ली है. आप क्यों पीछे हैं? रोटी, कपडा और मकान से पहले तो आपको भी अपना एक अलग राज्य, एक अलग राष्ट्र ही चाहिए ना? आइये, रजिस्ट्रेशन शुरू हो गया है. लाइन में आईयेगा, कम-से-कम यहाँ तो थोड़ा धीरज दिखाइए.

ठीक 40 साल पहले 1969 में लगभग चार सौ लोग अलग तेलंगाना राज्य का सपना दिलों में दबाये ही इस दुनिया से विदा हो गए. माफ़ कीजियेगा, विदा हो गए नहीं, विदा कर दिए गए. इन चालीस सालों में तेलंगाना आन्दोलन तो खैर चलता ही रहा, पर इस पर राजनीतिक रंग भी बड़ा तेजी से चढ़ा. इसी का नतीजा था कि जो तेलंगाना राज्य सैकड़ों लोगों के बलिदान के बाद भी न बन सका, उसे बनाने का फैसला केंद्र सरकार ने 9 दिसंबर 2009 को शाम 7 बजे से रात 11 बजे के बीच चार घंटे में ही ले लिया. दनादन संवाददाता सम्मलेन बुलाकर गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने घोषणा कर डाली कि अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंध्र प्रदेश विधान सभा में प्रस्ताव लाया जायेगा.

बड़े ताज्जुब की बात थी कि आखिर विधान सभा में कांग्रेस इस प्रस्ताव को पारित करवाएगी कैसे? विरोध के स्वर उभरने की पूरी गुंजाइश थी और हुआ भी वही, जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी. पहले तेलंगाना के समर्थन में हंगामा मचा था, अब विरोध में मचा. और जब फिर से गृह मंत्री का बयान आया कि फ़िलहाल कोई नया राज्य नहीं बनेगा और सर्वदलीय बैठक में फैसला लिया जायेगा तो एक बार फिर से आन्दोलन भड़क उठा कि सरकार अपने वायदे के खिलाफ जा रही है.

देखा जाये तो देश में 1953 की स्थिति एक बार फिर से बनती नज़र आ रही है. गौरतलब है कि 56 साल पहले मद्रास में अलग आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाने की मांग को लेकर 58 दिन की भूख हड़ताल पर बैठे पोट्टी श्रीरामुलू की मौत हो गयी थी. तब जाकर नेहरु सरकार ने घुटने टेक दिए और देश में पहली बार भाषा के आधार पर राज्य बनाने की स्वीकृति देकर सरकार ने आन्ध्र प्रदेश राज्य का गठन कर दिया. इसी का नतीजा था कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना हुई और देश में पहली बार भाषा के आधार पर राज्यों के गठन को मंजूरी दे दी गयी.

1953 के हालात फिर से ना पनपने पाए, यह सोचकर केंद्र की कांग्रेस सरकार ने टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के 11 दिनों के आमरण अनशन के सामने झुककर पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की 9 दिसंबर की अर्धरात्रि को घोषणा तो कर दी, पर ये न सोचा कि उसके नतीजे क्या होंगे. परिणाम सामने है. इधर सरकार ने घोषणा की नहीं कि गोरखालैंड के लिए लोग आमरण अनशन पर बैठ गए. पिछले एक दशक से सोये नेता जाग गए और देखते- ही-देखते पूर्वांचल, हरित प्रदेश, विदर्भ, बुंदेलखंड सहित 11 नए राज्यों की मांगे सामने आ गयीं. अपने पुतले बनवाकर अमर बनने का ख्वाब टुटा तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी पत्ता फ़ेंक दिया और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश के तीन टुकड़े करवाने पर तुल गयीं. भाजपा से निकले गए जसवंत सिंह को लगा ही था कि उनका राजनीतिक जीवन भी अब उनके बुढ़ापे के साथ बुढ़ापे का शिकार होने जा रहा है, उनके हाथ फिर से गोरखालैंड का मुद्दा लग गया. अजित सिंह जो इतने दिनों तक पाता नहीं कहाँ दुबके हुए थे, अचानक हरित प्रदेश के लिए अपना हिस्सा मांगने बिल से निकल आये.

हालाँकि असमंजस की स्थिति अभी भी बरक़रार है. पृथक तेलंगाना राज्य के गठन में भी बहुत सारी अडचनें हैं. भोगौलिक दृष्टि से हैदराबाद तेलंगाना में आता है. पर याद रहे कि हैदराबाद आंध्र प्रदेश का चेहरा है, जिस पर राज्य सरकार ने न जाने कितना कुछ लुटाया है. ऐसे में फिर वही स्थिति हो जाएगी जो 1953 पोट्टी श्रीरामुलू के साथ हुआ था. आंध्र प्रदेश तो बन गया, पर मद्रास नहीं मिला. यहाँ भी कहीं वैसा ही न हो जाये. चंद्रशेखर राव के हाथ में तेलंगाना तो आ जाये, पर शायद हैदराबाद न आने पाए.

खैर तेलंगाना या अन्य राज्यों के गठन के मुद्दे पर हम बात ही क्यों करें. क्यों देश को तोड़ने की सोचे? सही मायनों में देखा जाये तो राज्यों के गठन का मामला वास्तव में राज्यों के गठन का नहीं रहा है. यह मुद्दा राजनीतिक महत्वाकान्क्षाओं, राजनीतिक और व्यक्तिगत स्वार्थों का बन गया है. सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिए. एक दिन देश का हरेक नागरिक सड़क पर होगा, अपने हिस्से के लिए. रोटी, कपडा, मकान और नौकरी से पहले उनकी मांग होगी अपने लिए एक अलग देश, एक अलग राज्य की.

बात में दम है. एक राज्य के लिए करोड़ों लोग सड़क पर उतर आये हैं. हो-हल्ला मचा रहे हैं, मार-काट तक को तैयार हैं. लेकिन महंगाई को लेकर कोई बवाल नहीं है. सरकारी स्कूलों में मास्टर नहीं आते, उसे लेकर क्रोध नहीं है. हर रोज़ महिलाओं के साथ छेड़खानी होती है, गाँव-गाँव में बलात्कार होते हैं, उसे लेकर कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उसे ले कर कोई बोलने वाला नहीं है. नौकरी के लिए पढ़े-लिखे लोग तरस रहे हैं, पर सरकार से कोई पूछने वाला नहीं है. लेकिन राज्य न मिला तो जान देने और लेने को भी तैयार है. सलाम है जनता की इस सोच को.

तोड़ डालो देश को. जी हाँ, देश का टूटना जरुरी है. जितने टुकड़े होंगे, उतनी आसानी से शासन चल पायेगा. कानून-व्यवस्था बनाये रखने में मदद मिलेगी. वैसे भी हमारे राज्य बहुत बड़े-बड़े हैं. मध्य प्रदेश में यूरोप के कम-से-कम 12-13 देश समां जाएँ. कुछ ऐसा ही महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक आदि के भी साथ है.

राज्य पुनर्गठन आयोग का फिर से नए सिरे से गठन किया जाना चाहिए. पर इस बार बंटवारे का आधार भाषा या संप्रदाय न हो. इससे केवल राजनेताओं के स्वार्थ की पूर्ति हो पायेगी. यह विकास नहीं, बर्बादी का आधार होगा. बंटवारा होना चाहिए लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखकर, यह देखकर कि उस बंटवारे उस क्षेत्र का विकास कितनी तेजी से हो सकता है. तब जाकर राज्यों के बंटवारे की समस्या भी सुलझेगी और सही मायने में विकास का चक्र भी चल पायेगा.

विकास की जो गति टेक्नोलोजी और संचार के क्षेत्र में देखी जा रही है, उसी रफ़्तार में विकास लोगों की सोंच में भी दिखना जरुरी है. तभी सरकार ने जितनी तत्परता राज्यों के गठन जैसे मुद्दों में दिखाई है, वही तत्परता विकास के मसलों में भी नज़र आएगी.

तो फिर क्या राय है आपकी? तोड़ दिया जाये देश को.....???

संपर्क: shaileshfeatures@gmail.com

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

'कुपोषित' देश की 'धार्मिक' राजनीति



शैलेश कुमार

गड़े
मुर्दे को एक बार फिर से खोद कर बाहर निकाल दिया गया है. 17 साल पुराना बाबरी मस्जिद कांड फिर से जहाँ मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहा है, वहीं इसने दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इन ठंडी के दिनों में भी जबरदस्त गर्मी पैदा कर दी है.

सबसे पहले तो 17 साल पहले 16 दिसंबर 1992 को गठित लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट के लीक होने के बाद संसद के दोनों सदनों में खूब बवाल मचा और उसके बाद जब रिपोर्ट आखिरकार संसद में पेश कर दी गयी तो जो कुछ भी संसद के अन्दर देखने को मिला, उसने देश को एक बार फिर से शर्मशार कर दिया. पूरी दुनिया ने टेलीविजन स्क्रीन पर उस भारत के प्रतिनिधियों को धक्का-मुक्की और गाली-गलौज करते हुए देखा, जिसने हमेशा से विश्व को शांति और अहिंसा का पाठ पढाया है और जिसकी वैश्विक समुदाय के बीच गहरी पैठ बनी है.

जस्टिस लिब्राहन ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिन्दू परिषद् (वीएचपी) और इससे जुड़े अन्य संगठनों को 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है. बेदाग छवि वाले राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा के अन्य बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक कुप.सी. सुदर्शन, भाजपा से निष्काषित नेता कल्याण सिंह और उमा भारती आदि को भी इस मामले में मुख्य अभियुक्त के तौर पर आरोपित किया गया है. लेकिन जो सबसे बड़ा बवाल मचा है, वो इस बात को लेकर है कि आखिर अटल बिहारी का नाम इसमें क्यों घसीटा गया? भाई कानून सभी के लिए एक समान होता है. अगर नाम आया है तो कुछ तो जरुर होगा. सच्चे होंगे तो बचेंगे, नहीं तो सजा मिलेगी. इसमें हो-हल्ला क्यों?

रिपोर्ट तो सामने आ गयी पर इस रिपोर्ट में कितनी सच्चाई है, यह बताना ज्यादा मुश्किल प्रतीत नहीं होता. पूरे रिपोर्ट में केवल एक कांग्रेसी नेता का नाम है, जो हैं शंकर सिंह वाघेला. पर ध्यान रहे कि वाघेला भी भाजपा से ही कांग्रेस में आये हुए हैं. अप्रत्याशित रूप से पूरे प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री और दिवंगत कांग्रेसी नेता पी.वी. नरसिंह राव को क्लीन चीट दे दी गई है. उन्हें यह कहते हुए निर्दोष बताया गया है कि भाजपा ने केंद्र सरकार को अँधेरे में रखा. केंद्र सरकार को सूचित किया गया कि विवादित ढांचे पर केवल पूजा-अर्चना की जाएगी. लेकिन हकीकत में उनकी योजना बाबरी मस्जिद को ढहाने की थी.

लेकिन ऐसा कैसा हो सकता है? अंदरूनी रिपोर्ट्स बता रहे हैं कि राव को इस बात की पूरी-पूरी जानकारी थी. बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद उन्होंने एक पत्रकार से कहा भी था, 'अच्छा हुआ बला टल गयी'. फिर भी लिब्राहन की रिपोर्ट पर यकीन करें तो क्या हम यह मान लें कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र, सारी बड़ी गुप्तचर एजेंसियां उस समय हाथ-पे-हाथ धरे बैठी रह गयी. पूरे देश भर में बाबरी मस्जिद को गिराने जैसी इतनी बड़ी योजना बनती रही और उन्हें भनक तक नहीं लगी?

कल्याण सिंह, लाल कृष्ण आडवाणी, उमा भारती और सुदर्शन जिस प्रकार से अपनी हरकतों पे गर्व महसूस कर रहे हैं, उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. उसके पीछे हिन्दू समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो आज भी शायद उनके एक इशारे पे खून देने और खून बहाने पर आमादा हो सकता है. 16वीं सदी में बाबर द्वारा बलपूर्वक बनाये गए बाबरी मस्जिद में 22 दिसंबर 1949 को हिन्दुओं ने रामलला की मूर्ति स्थापित करके इस विवाद को सदियों बाद जन्म दिया था. हालाँकि उस समय अदालत ने दो समुदायों के बीच पनपे झगडे को देखते हुए इसे विवादित स्थल करार देते हुए, इसे बंद कर दिया था. 1 फ़रवरी 1986 को फैजाबाद सेशन कोर्ट ने इसे हिन्दुओं के लिए पूजा करने को खोल दिया था. 9 नवम्बर 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने भी इस स्थल पर शिलान्यास समारोह आयोजित करने की अनुमति दे दी थी. हाँ इस बात से तो सभी वाकिफ हैं कि आखिर इसके पीछे उनकी मंशा क्या थी.

आरएसएस, वीएचपी और भाजपा के नेताओं को अपने किये पर गर्व है. मुझे नहीं लगता कि किसी प्रकार की सजा उन्हें बदल सकती है. इसका परिणाम इससे कहीं जयादा भयानक हो सकता है. एक पूरा समुदाय इस बात पर भड़क सकता है. और जब तक आप किसी को सुधार नहीं सकते, उसकी गलतियों का उसे एहसास नहीं करवा सकते, तो वो सजा ही किस काम की है? खासकर ऐसी सजा जिसके एवज में देश को फिर से एक बार सांप्रदायिक दंगो की आग में जलकर एक बड़ी कुर्बानी देनी पड़ सकती है?

और हम कभी ये सोचने की कोशिश क्यों नहीं करते कि आखिर इस मसले का हाल क्या है? ये बात जगजाहिर हो चुकी है कि अयोध्या का यह विवादित स्थल हिन्दुओं के पूजनीय श्रीराम का स्थल हुआ करता था. बाबर के समय यहाँ पर बाबरी मस्जिद बनवाई गयी थी. इन सब बातों को अलग रखकर भी सोचे तो हमें एहसास होगा कि मुस्लिम भाइयों के लिए जो महत्व मक्का-मदीना का हुआ करता है, सदियों से इस स्थल का यही महत्व हिन्दुओं के लिए रहा है. जिस प्रकार से देश-विदेश से हिन्दुओं का जत्था नियमित रूप से इसे तीर्थ स्थल मानकर यहाँ पर पहुचता रहता है, वैसे मुस्लिमों का हुजूम यहाँ नहीं उमड़ता. इससे काम-से-काम यह तो साफ़ है कि किसके लिए यह धर्म की आस्था का सवाल है, और किसके लिए केवल प्रतिष्ठा का? ऐसे में एक बार इस स्थल को एक ही समुदाय को सौंपकर इसका हाल क्यों नहीं निकाल लिया जाता? किसी एक पक्ष को झुकने की जरुरत है. जब मुस्लिम भाइयों को पाता है कि हिन्दुओं की इस स्थल से कितनी आस्था जुडी है तो वे एक छोटी सी क़ुरबानी क्यों नहीं दे देते? धर्मनिरपेक्ष देश कहलाते हुए भी इस देश में उन्हें अल्पसंख्यक का दर्ज़ा देकर विशेष अधिकार दिए गए हैं. तो क्या शांति के लिए वे पीछे नहीं हट सकते?

यही सवाल हिन्दुओं के लिए भी है. राम मंदिर अकेला मंदिर नहीं है देश में. ये बात जरुर है कि श्री राम की जन्मस्थली होने की वजह से उनकी इस भूमि से आस्था जुड़ी है. पर उन्हें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. उन्होंने हमेशा से ही अच्छाई, भाई-चारा और शांति को प्राथमिकता दी है. ठीक है, आप वहां पे मंदिर बनाने के लिए संघर्ष करें. पर एक-दूसरे का रक्त बहाना कहाँ तक उचित है? थोड़ा समझौता कर लें तो आप छोटे थोड़े ही पड़ जायेंगे? मंदिर के साथ थोड़ी दूरी पर मस्जिद को भी बनने की जगह दे दीजिये.

हिन्दू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद की बातों को लेकर आखिर कब तक लड़ते रहेंगे? अपने आप को भारतीय कहना कब सीखेंगे? अरे भाई, हमारे दुश्मन हमारी फूट का ही हमेशा से फ़ायदा उठाते रहे हैं. तो क्यों न हम अपनी एकता दिखा उन्हें मुहतोड़ जवाब दें?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में धर्म की भी बड़ी अहमियत है. हर धर्म को अपनी रक्षा करने का पूरा-पूरा अधिकार है. खासकर हिन्दुओं के लिए, जिनका सबसे बड़ा हिस्सा भारत में ही बसता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि लड़-झगड़ के और खून बहाकर ऐसा किया जाये. देश में कायदे-कानून भी हैं. अब ये मत कहना कि भला वे कितने प्रासंगिक हैं? मत भूलिए कि उन्हें अप्रासंगिक बनाने के पीछे भी हमारी ही निष्क्रियता छिपी है.

यदि धर्म की ही रक्षा करनी है तो देश के विभिन्न भागों में जबरन किये जा रहे धर्म परिवर्तन पर रोक लगायी जाये. लड़ाई का बिगुल उन शक्तियों के विरुद्ध फूंका जाये जो धर्म का असली मतलब नहीं जानते और लोभ-लालच व हिंसा के रास्ते से इसे प्रदूषित करने की कोशिश करते हैं, इस पर कालिख पोतने की कोशिश करते हैं. कुछ दिनों पहले केरल और बेंगलुरू में इस प्रकार के गिरोह का पर्दाफाश हो चुका है.

मंदिर-मस्जिद का नाम लेकर जो लोग देश की एकता को विखंडित करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में हिन्दू-मुस्लिम हमेशा से ही दो भाइयों की तरह रहे हैं. हाँ लोगों की सोच पर मीडिया का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है, जिसने दोनों ही धर्मों के संगठनों के चेहरे को हमेशा से ही तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने पेश किया है. उदाहरण के तौर पर आरएसएस को हमेशा इस रूप में पेश किया गया कि वो एक हिन्दू संगठन है जो केवल हिन्दुओं की भलाई चाहता है और मुस्लिमों के खून का प्यासा है. ये एक कट्टर हिन्दू संगठन है. पर इस बात को मीडिया ने कितनी बार लोगों को बताया कि आरएसएस की शाखाओं में आज भी सुबह-शाम बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक को हर रोज़ देश से प्यार करना सिखाया जाता है. उन्हें प्रेरक-प्रसंग, सुभाषित, बौद्धिक, स्वदेशी खेलों आदि के माध्यम से भारत की भूमि से जोड़े रखने का प्रयास किया जाता है. आज के समय में कितने संगठन निःस्वार्थ भाव से ये काम कर रहे हैं?

एक और बात, आरएसएस की शाखाओं में केवल हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम भी जाते हैं. आरएसएस अगर हिन्दू राष्ट्र की बात करता है तो 'हिन्दू' शब्द से उसका ये तात्पर्य नहीं कि यह केवल हिन्दुओं का देश है. 'हिन्दू' शब्द तो उन तमाम लोगों के लिए है जो इस देश से प्यार करते हैं, खुद को पहले भारतीय मानते हैं, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर सिख या ईसाई.

उस तरह से पिछले कुछ समय से मुस्लिमों को इस देश में संदेह की नज़रों से देखा जाने लगा. हर मुस्लिम चेहरे में लोगों को आतंकवादी ही झलकने लगा था. लेकिन यहाँ भी बता दूँ कि ये लोगों के द्वारा बनाई गई चीज़ नहीं थी. मीडिया ने उन्हें ऐसा मुखौटा पहनाकर लोगों के सामने पेश किया था. पर इस बात को कितने मीडिया संगठनों ने दिखायाकि देश में जब भी कोई विपदा आई है, मुस्लिम संगठनों ने पीड़ितों की सहायता के लिए पूरा प्रयास किया है. बिहार में जब कोशी उफान पे थी और करोड़ों परिवारों को निगल रही थी तो उस समय भी वहां से हजारों मील दूर बेंगलुरु, त्रिवेंद्रम, चेन्नई और मंगलौर में मुस्लिम संगठन उनके लिए कपड़े, पैसे व जरुरत की अन्य चीजें दिन-रात एक करके इकठ्ठा कर रहें थे. ये सब कहीं न कहीं हमारी एकता का परिचायक है.

वक़्त बदला है, अब अपना नजरिया बदलने की भी जरुरत है. खामियां हर जगह होती हैं, पर उसके साथ बहुत सी अच्छाईयां भी होती है. तो क्यों न हम अच्छाईयों पर केवल ध्यान दें, ताकि हम सब एक खुशहाल ज़िन्दगी जी सकें?

मालूम हो कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को तैयार होने में आठ करोड़ से भी ज्यादा रूपये खर्च हुए हैं. मत भूलिए कि ये आठ करोड़ रूपये हमारे हैं. हमारे सत्तालोलुप राजनेता हमारी फूट, हमारी सोच और हमारी भूल का फ़ायदा उठाकर अपना जेब भरने में लगे हैं. वो कभी नहीं चाहेंगे कि हम एकजुट हों.

पर सोचिये वो आठ करोड़ रूपये उस काम पर खर्च किये गए, उस बात को सामने लाने पर व्यय किये गए, जो कि लोगों के सामने 17 वर्ष पहले भी थी. और अब जो रिपोर्ट इतने सारे पैसे खर्च होने और इतने लम्बे अंतराल के बाद सामने आई है, वो भी बेदाग नहीं है. अभी भी कुछ नहीं होने वाला. फिर से नयी जाँच कमिटी बैठेगी अब इस रिपोर्ट की जाँच के लिए. फिर उसका जो निष्कर्ष आएगा, उसकी जाँच के लिए भी कमिटी बनेगी. केवल कमेटियां ही बनती रहेंगी पर कभी इसका कोई परिणाम नहीं निकलेगा.

मित्रों, आठ करोड़ रूपये इस कुपोषित देश की गरीब जनता पर भी खर्च किये जा सकते थे. और बात सिर्फ आठ करोड़ रूपये की नहीं है. हजारों ऐसे घोटाले हैं जिनमे न जाने देश के यानि कि हमारे कितने ही करोड़ रूपये डूबे हुए हैं. मधु कोड़ा का 15 हज़ार करोड़ से अधिक का घपला के अलावा टेलिकॉम इंडस्ट्री का भी घपला हुआ है, जो शायद आज तक के सभी घोटालों को पीछे छोड़ दे. पर मामले को दबा दिया गया है.

गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, सम्प्रदायवाद, सूखा, बाढ़, लूट-खसोट आदि हमारे नेताओं के लिए वास्तव में समस्याएं नहीं हैं, वे तो इनके हथियार हैं, जिन्हें वे अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं. तो वे क्यों फिर इन समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करेंगे? उन्हें तो बस अपना उल्लू सीधा करना है. इसके लिए वे अपने देश, अपने लोग और जरुरत पड़ी तो अपने रिश्तेदारों का भी खून बहा सकते हैं, उन्हें पी सकते हैं.

अब भारत वह भारत नहीं रहा जो वह 1947 से पहले हुआ करता था. पीढियां बदल गयी हैं. दुनिया की दौड़ में टिके रहने के लिए अब खुद को विकसित करने की जरुरत है. यह विकास केवल काम में ही नहीं, हमारी सोच में भी होने की जरुरत है. मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों से बाहर निकल उन विकल्पों के बारे में सोचने की आवश्यकता है जो गरीबी उन्मूलन में मदद करे. ऐसे विकल्पों को तलाशने की जरुरत है जो अशिक्षा के अंधकार को दूर कर वहां ज्ञान का प्रकाश फैलाये, वृहद् उद्योगों के साथ लघु व कुटीर उद्योगों को भी फलने-फूलने में मदद कर बेरोजगारी को दूर भगाए और साथ-ही-साथ कृषि को प्रोत्साहन देकर किसानों और गांवों का वजूद जिंदा रख सके.

राम और खुदा हमेशा दिलों में रहें पर हमारे काम में विकास झलके, यही सच्चे भारत की पहचान होगी.

संपर्क: shaileshfeatures@gmail.com

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

Media’s Miss


By Shailesh Kumar

Arthur Miller once said, “A good newspaper, I suppose, is a nation talking to itself.” The quote indicates towards the qualities of newspapers. It shows the intensity of trust on the newspaper by the nation and the society.

But how sincerely the journalists are performing their duties, its really doubtful these days. The focuses of newspapers have shifted from the social reform to the lives of urban areas, fashion and technology etc. Mostly all the newspapers are after money. They have become business-minded. They simply want to earn more and more money and are looking forward to increase their circulation. In this way the news values are being ignored and the reporters have forgotten what they are supposed to report and what not. Perhaps this quote of an American-born British violinist Sir Yehudi Menuhin seems very suitable in this context. He once said, “Whenever I see a newspaper, I think of the poor trees. As trees they provide beauty, shade and shelter, but as paper all they provide is rubbish.” Even Arnold Bennett, an English Novelist once said, “Journalist say a thing that they know isn’t true in the hope that if they keep on saying it long enough it will be true.”

What we notice these days in newspapers is the changing style of writing, contents and status of news story as well as the articles. The news about the life-history of a film star cover the front page of the newspaper whereas the news about the dying people due to poverty in rural areas hardly find a place on the inside pages of the newspaper.

That’s not all. Newspapers have crossed all the limits to make the news sell. The history shows how the newspapers had played with the facts and figures. In 1992 during Hindu-Muslim riot few Hindi newspapers in North India showed great irresponsibility. Instead of promoting calm and peace they put the fuel in the fire by playing with the number of dead, playing with headlines and pictures.

During the Mandir-Masjid issue in Ayodhya, the Hindi Press played a damaging role by inciting passions against the government and the minority community. Four Hindi dailies: Aaj, Dainik Jagran, Swatantra Chetna and Swatantra Bharat were censured for their gross inconsistency and impropriety violating journalistic ethics in covering the events relating to the Mandir-Masjid issue by the Press Council of India in January 1991. They were found guilty in a few instances of playing with the pictures, such as drawing prison bars on the photograph of an arrested mahant, formulating causality figure.

One of the newspapers carried out the headlines like “Ayodhya mein Ram Mandir toda gaya (Ram Mandir demolished in Ayodhya). “Nihatthe Ram bhakton ko gher ker ghanton firing – 200 maray Kartik Kay Snan par khoon se nahaye Ayodhya Jallianwala Wala Bagh kaand bouna pada” (Hours of firing on the unarmed worshippers of Ram after rounding them up – 200 die, Ayodhya bathed in blood on Kartik-day bath, Jallianwala Bagh episode becomes petty against this.) “Sou se adhik lashein Saryu mein fainkee gayein.” (More than hundred bodies thrown into river Saryu).

The purpose was very clear. They wanted to sell the news and it was possible only when the news were sensational. A newspaper at once came out with the different numbers of dead in the different edition on the same date. Varanasi edition the paper told the number of dead was 100, whereas according to Kanpur and Bareilly edition it was 200 and 500 respectively. In Ranchi edition the paper reported that 400-500 were dead and injured whereas in Agra edition it wrote 100 killed.

Another newspaper gave this headline without making any attribution. “Har goan ko Ayodhya maan kar sangharsh karein.” (Consider every village as Ayodhya and fight out.) The same paper in a report of communal clash, openly identified persons of the two communities involved.

A newspaper crossed all the limits. In it’s Varanasi edition It carried out the headlines “Ayodhya mein…kar sevakon par firing – 115 mare, darjaon ghayal (Firing on kar sevaks in Ayodhya – 115 dead, dozens injured). The paper had originally given a figure of 15 dead on November 2 in a special bulletin that afternoon, but at the last moment ‘1’ was inserted by hand to make it ‘115’. The item remained credited to the news agency ‘Univarta’ even after this charge. This is unethical, in addition to being totally irresponsible.

One more example I remember from a newspaper in Bhopal. After being the Chief Minister of Madhya Pradesh, Uma Bharti was interviewed by a journalist. She told so many things about her plan and the development issues. But the journalist ignored all these facts and came up with a quotation headline made by her. The headline was “I am still the Sanyasin of Ayodhya”. The journalist did so because he wanted to add Masala in the news item.

Last year during the Pope controversy also media played a negative role. It was the impact of media only that in the morning Pope made the remark and the people throughout the world were on the street to protest in the same afternoon. By focusing a specific part of his statement the media made it a sensational issue and sold the news.

Even during the Gujarat riots in 2002 journalists made the situation worst by publishing sensational reports and pictures. That is why the riots reached to other parts of country as well.

Journalists should avoid provocative and sensational headlines and the headings must reflect and justify the matter under them. They should remember that comments and value judgments should not be motivated or guided by partisan feeling. Newspapers are not there to bring the smile only on readers’ face but they have to report the truth whether it brings smile or force the reader to think seriously on the issue.

After blasts or any disaster all the newspapers come up with various sensational headlines. But the smarter newspaper is that which tells us how to escape the disaster or how to avoid such blasts. Newspapers are supposed to built the nation and it is possible only when the people think positively. The negative kind of reporting can mislead the people.

Charles Prestwich Scott, an English newspaper editor once said, “The newspaper is of necessity something of monopoly, and its first duty is to shun the temptations of monopoly. Its primary office is the gathering of news. At the peril of its soul it must see that the supply is not tainted. Neither in what it gives, nor in what it does not give, nor in the mode of presentation, must the unclouded face of truth suffer wrong. Comment is free facts are sacred.” Newspapers must report the truth and keep it in mind that they are the fourth estate of democracy.

रविवार, 8 नवंबर 2009

अब न खोना होश "जोश" में

शैलेश कुमार
नई दिल्ली

आस्ट्रेलिया को अगर विश्व चैम्पियन कहा जाता है तो इसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह है. ऐसी बात नहीं है कि उसे हराया नहीं जा सकता. लेकिन इस टीम के पास कुछ ऐसा है जो भारत या दूसरी अन्य टीमों के पास अभी भी नहीं है. और ये एक ऐसी चीज़ है जो उसे आसानी से कभी भी हारने नहीं देती. वो है इसके सभी खिलाडियों के अन्दर जीतने की चाहत और हर कीमत पर अपना सौ प्रतिशत प्रदर्शन देने की इच्छाशक्ति.

रविवार को गुवहाटी में आस्ट्रेलिया और भारत के बीच खेले गए एकदिवसीय मैच में यह साफ़ तौर पर झलक रहा था. आस्ट्रेलिया का उत्साह तो सीरिज में 3-२ की बढ़त बनाये रखने से चरम पर था ही पर भारतीय खेमे में भी इस मैच को हर हाल में जीतने की ललक होने की उम्मीद लगाई जा रही थी. पर मैदान में तो इसका उल्टा होते ही नज़र आया. सहवाग के खूबसूरत छक्के ने भले ही एक पल के लिए करोडों क्रिकेट प्रेमियों के दिलों में एक रोमांचक मैच होने की उम्मीद जगा दी, पर यह उम्मीद दूसरे ही पल धराशाई हो गयी. एक के बाद एक लगातार पांच दिगज्जों की पैवेलियन में वापसी ने भारत की कमर तोड़ कर रख दी.

सचिन तेंदुलकर जिन्होंने, पिछले मैच में कई इतिहास रचने के बावजूद रात भर सो नहीं पाए थे, शायद रविवार को खेली गई अपनी पारी के बाद कई दिनों तक चैन से नहीं सो पाए. क्रिकेट का भगवान कहे जाने वाले सचिन रमेश तेंदुलकर का क्रिकेट में 20 साल का अनुभव भी आज भारतीय बल्लेबाजी को संकट से न उबार सका. विज्ञापनों और रैंप पे अपना जोश दिखाने वाले युवराज का जोश भी रविवार को मैदान में ठंडा नज़र आया. मज़े की बात तो ये रही कि पिछले कई मैचों से ख़राब फॉर्म से जूझ रहे रविन्द्र जडेजा को थोडी बहुत अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हुआ. वह भी यही कहा जायेगा कि जीवनदान ले लेकर उनकी पारी आगे बढती रही. हरभजन सिंह जिन्हें अब ऑ़लराउंडर के तौर पर प्रमोट करने की बात चलने लगी थी, उन्होंने भी बस आने-जाने की ही रस्म निभाई. सिर्फ प्रवीण कुमार की बल्लेबाजी में वास्तव में संघर्ष करने का जूनून नज़र आया.

कुल मिलकर टीम में सही प्लानिंग का पूरा अभाव देखा गया. शीर्ष के सभी बल्लेबाजों ने गैर जिम्मेदाराना तरीके से अपने विकेट गंवाएं. कुछ को छोड़कर किसी में भी किसी तरह की कोई गंभीरता नहीं दिखी. दूसरी ओर आस्ट्रेलिया के गेंदबाजों और क्षेत्ररक्षकों ने खेल में जी-जान लगा दिया. अतिरिक्त रनों पर अंकुश लगा कर रखा और गिर-पड़के भी कई चौके बचाकर भारत पर सफलतापूर्वक दबाव बनाया. लेकिन भारतीय खिलाडियों में इसका एक बार फिर से अभाव नज़र आया. आस्ट्रेलिया को एक लड़ने वाला लक्ष्य देकर भी गेंदबाज और क्षेत्ररक्षक आस्ट्रेलिआई बल्लेबाजों पर ज्यादा दबाव नहीं बना सके. हाँ बीच-बीच में विकेट तो गिरते रहें, पर आस्ट्रेलिआई बल्लेबाजों की सधी हुई पारी ने उन्हें संकट से उबारे ही रखा.

इस श्रृंखला में लगातार दो मैच जीतने के बाद और पिछले मैच में विशाल लक्ष्य के काफी करीब तक पहुँचने के बाद भारतीय टीम से फिर से वापसी की उम्मीद लगाई जा रही थी. पर उन्होंने इसे फिर से झूठला दिया. खेल में अक्रात्मकता का पूरी तरह से अभाव नज़र आया. ऐसा लगा जैसे पिछले मैच में इतना बड़ा लक्ष्य के पास पहुँचने के जोश में वे इस मैच में अपना होश गवां बैठे.

महेंद्र सिंह धोनी भारत के सफलतम कप्तानों में से एक हैं. वे खुद भी एक अच्छे बल्लेबाज हैं. उनके पास शायद आज तक की सबसे मजबूत और लायक टीम है. इस टीम के साथ खेलकर मैच कैसे जीतना है, इस बात का फैसला उन्हें करना है. ऐसी योजना बनानी है जो कि वास्तव में कारगर साबित हो. इसके साथ-साथ खिलाडियों को जरुरत है अपने पिछले प्रदर्शन पर निगाह डालते हुए पिछली गलतियों को सुधारने की. टीम मैच तभी जीत सकती है, जब खिलाडी खुद से पहले देश के लिए खेलना सीखें. एक और बात, सफलता से उत्साहित होना अच्छी बात है. पर जोश में होश खोने में भला कहाँ की बुद्धिमानी है?

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गुरुवार, 5 नवंबर 2009

क्या यही भारत की राजधानी है?

शैलेश कुमार
नई दिल्ली

सपनों का शहर, देश की राजधानी दिल्ली. मेरी, आपकी, हम सब की दिल्ली. यूपी, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, देश का कोई राज्य, कोई जिला, शायद ही ऐसा हो जहाँ से आकर लोग दिल्ली में न बसे हों. मुझे ही देखिये, बेंगलुरु को छोड़कर कुछ महीनोंपहले दिल्ली आ गया. ये सोचकर कि ये भारत की राजधानी है. बहुत ज्यादा उन्नत है. सभी को अपना बना लेता है ये. पर दो महीनों के अनुभव ने एकदम से विचारधारा ही बदल कर रख दी.

यदि आपको याद हो तो कुछ दिनों पहले स्विस बैंकिंग समूह यूबीएस ने अपनी सर्वे रिपोर्ट में कहा था कि भारत में रहने और खाने के खर्च में लगातार इजाफा होने के बावजूद दिल्ली और मुंबई दुनिया से सबसे सस्ते शहरों की कतार में बने हुए हैं. पर ऐसा नहीं है. महंगाई ने दिल्ली की कमर तोड़ कर रख दी है. बसों के किराये अचानक ऐसे बढ़ें कि रोजाना सफ़र करने वाले यात्रियों के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई.

बसों में अब दुगुना भाडा देकर लोगों को यात्रा करनी पड़ रही है. ऐसे में उन लोगों को तो करारा झटका लगा है जिनकी महंगाई बढ़ने के बाद भी तनख्वाह नहीं बढ़ी. दूध, अनाज, ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जिसकी दाम न बढे हों. सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि इनके दामों में बेतहाशा वृद्धि हुई है.

खैर ये तो हुई महंगाई की बात. अब ज़रा दिल्ली के बसों पर एक नज़र डालिए. बस स्टाप पर मुझे बस में चढ़ने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है. इसीलिए कि मेरे बिना हिले यात्रियों की भारी भीड़ धक्का दे अपने साथ मुझे भी बस के अन्दर पहुंचा देती है. और मज़े की बात तो यह है कि कभी-कभी मैं बस के अन्दर हवा में खड़े हो यात्रा करता हूँ. सच कह रहा हूँ भाई, ठसाठस भीड़ में मैं हवा में लटका रहता हूँ. मेरे पैरों के नीचे बस की सतह नहीं होती, न ही ऊपर लगे डंडे को पकड़ने की जगह. है न ये मजेदार सफ़र?

जब घंटों जाम लग जाता है तो बस में इस पोजीशन में हवा में लटके नानी याद आ जाती है. न तो साँस लेने की जगह, न ही शरीर को हिलाने की जगह. दिल्ली सरकार सालों से कहती आ रही है कि प्राइवेट ब्लू लाइन बसों को सड़कों से हटाकर डीटीसी बसें लाई जाएँगी. पर अपनी इस योजना पर दिल्ली सरकार ने कितना अमल किया है, यह किसी से भी छुपा नहीं है. जब तक दिल्ली में नहीं था, ब्लू लाइन बसों की करतूतों के बारे में केवल सुना करता था. पर अब प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देख रहा हूँ. बस में यात्रियों को भेड़-बकरियों की तरह इनके चालक और कन्डक्टर समय, दूरी और सुरक्षा सभी को ताक पर रख देते हैं.

कुछ इलाकों को अगर छोड़ दें तो शहर के बाकी हिस्सों में अभी भी सड़कें टूटी-फूटी हैं. केवल फ्लाईओवर बना देने से शहर का विकास नहीं होता मुख्यमंत्री जी. जरा अंदरूनी इलाकों में जाकर देखिये. बड़े-बड़े नाले अभी भी खुले बह रहे हैं. साथ में बहा रहे हैं शहर भर का कूड़ा-करकट और गन्दा पानी. बीमारियाँ अलग फ़ैल रहीं हैं. पश्चिमी दिल्ली की हालत बद से भी बदतर कही जा सकती है. बारिश के समय सड़क और नालों में अंतर करना भी मुश्किल हो जाता है.

अभी तक शहर के ज्यादातर इलाकों में पीने योग्य पानी नहीं पहुँच पाया है. द्वारका सेक्टर एक और महावीर कालोनी में लोगों को अब तक समुद्र के जैसा खारा पानी ही मिल रहा है. बारिश होने पर स्थिति और भी बिगड़ जाती है.

अपराध का तो कहना ही क्या? क्राइम ग्राफ तो इस तेजी से ऊपर चढ़ रहा है, जैसे गर्मी से पारा चढ़ जाता है. लूट, हत्या और अपहरण तो जैसे आम बात हो गई है. अब तो पुलिस की वर्दी में भी वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है. पुलिस स्टेशन से 200 मीटर के दायरे में लूटपाट हो जा रही है और पुलिस को कोई खबर नहीं है. कुछ दिनों पहले दिल्ली-गुडगाँव हाईवे के निकट एक लड़के की पुलिस वालों से सामने कुछ लोग धुनाई करते रहें, पर वे चुप्पी साधे उसका मज़ा लेते रहें.

कह रहे हैं आतंकवादियों के निशाने पर है दिल्ली. पर राजधानी की सुरक्षा व्यवस्था को देखकर अन्य प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था शर्मा जाये. कभी मौका मिले तो रेलवे स्टेशन जाइये. मेटल डिटेक्टर वाला एक दरवाजा लगाया गया है, पहाड़गंज की ओर से अन्दर जाने वालेरास्ते पर. लेकिन, लोग थोडी दूर पर एक बड़ी सी खुली जगह से भी बैठने के लिए बने चबूतरे को फान कर अन्दर जा रहे हैं. पर रेलवे सुरक्षा बल के जवानों को इसकी कोई खबर नहीं है.

ऐसी बात नहीं है कि दिल्ली कि इस हालत के लिए मैं केवल दिल्ली सरकार या प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा रहा हूँ. जाहिर सी बात है कि इसके लिए आम जनता भी दोषी है. समस्या हर शहर में होती है. पर उस समस्या का समाधान उतना ही जल्दी होता है, जितनी जागरूक वहां की जनता होती है. दिल्ली एक प्रकार से पूरा भारत है. जो लोग यहाँ आकर बसे हैं, उनकी भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे दिल्ली को अपना मानकर, उसे साफ-सुथरा रखने में अपना योगदान दें. समस्याओं को प्रशासन तक पहुंचाए और जरुरत पड़ने पर अहिंसात्मक तरीकों का इस्तेमाल करते हुए सरकार के खिलाफ आवाज़ भी बुलंद करें.

नहीं तो यही एक सवाल कभी मैं, कभी आप और कभी कोई और उठाता रहेगा - क्या यही भारत की राजधानी है?

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बुधवार, 4 नवंबर 2009

मुर्दों की सुरक्षा?


शैले
कुमार

अनिल कपूर की फिल्म नायक के उस सीन जिसमे राजनीतिक आन्दोलन से उपजे भयानक जाम की वजह से अस्पताल पहुँच पाने के कारण अम्बुलेंस में एक मरीज को दम तोड़ते दिखाया गया है, की यादें तीन नवम्बर 2009 को उस समय तारोताज़ा हो गयीं, जब चंडीगढ़ में प्रधानमंत्री का काफिला गुजरने से पहले रोके गए ट्रैफिक की वजह से जन्मे जाम में फंसकर सही समय पर अस्पताल पहुँच पाने की वजह से एक मरीज ने अमुब्लेंस में ही दम तोड़ दिया. प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक विज्ञप्ति जारी कर घटना पर अफ़सोस तो जता दिया, पर क्या अफ़सोस जताने से उस इंसान की जा उसे वापस मिल जायेगी? क्या उस परिवार को अपना खोया बेटा, अपना भाई वापस मिल जायेगा? भले ही यह एक छोटी सी घटना रही हो, पर आम आदमी के लिए यह एक बहुत बड़ा मसला है और इस पर सोचने-विचारने और कुछ ठोस कदम उठाने की बड़ी जरुरत है.

देश के कुछ बड़े शहर और राजधानियां जो की राजनीति का अड्डा बन चुके हैं, उन शहरों में नेताओं की वजह से पैदा हुए जाम की वजह से आये दिन लोगों के चेहरे पर उभरते तरह-तरह के अफ़सोस, गुस्सा और अन्य भावों को आसानी से देखा जा सकता है. पिछले वर्ष बंगलोर में जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) की एक रैली के दौरान ऐसा जाम लगा था जिसकी कल्पना शायद मैंने कभी सपने में भी नहीं की थी. आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ये जाम लगभग 10 घंटे तक था. इस दौरान वहां से एक भी गाड़ी टस से मस भी नहीं हुई थी. स्कूल से लौटने वाले बच्चे रात में 10-11 बजे किसी तरह से अपने घर पहुंचे थे. जाने कितने ही लोगों की ट्रेन और जहाज छूट गए. पता नहीं कितने ही मरीजों की हालत बिगड़ गयी. और कितनी बड़ी तादाद में प्रदूषण में इजाफा हुआ. मैं इस घटना का खुद एक प्रत्यक्षदर्शीहूँ.

विधान सभा चुनाव के दौरान हरियाणा में नामांकन पत्र भरे जाने के समय कांग्रेसी विधायक लबीर पाल शाह के समर्थकों ने सुबह से ही पानीपत में जी टीरोड पर ऐसा जाम लगाया था कि शहर थम सा गया था. स्कूली बच्चे समय से स्कूल नहीं पहुँच पाए, लोग अपने ऑफिस नहीं जा सके. मरीज अम्बुलेंस और गाड़ियों में फंसे तड़पते रहे. पर सत्ता के प्यासे इन राजनेताओं की मस्ती जारी रही.

हाजीपुर में तो सारी हदें पार हो गयीं. जब नेताओं की गाड़ी जाम में फंस गयी तो उनके अंगरक्षकों ने जाम में फंसे लोगों को पीटना शुरू कर दिया. भाई इसमें लोगों की क्या गलती है, यदि प्रशासन ट्रैफिक जाम की समस्या को हल करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है तो. जाम में अगर आम जनता फंसती है तो नेताओं के भी फंसने पर यह मरना-पीटना क्यों? जब आम जनता जाम में ठहर सकती है तो नेता क्यों नहीं? जनता जनार्दन है. नेता तो उनके सेवक हैं.

हो सकता है कि चंडीगढ़ में घटी घटना के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. पर कहीं कहीं वे भी इसका हिस्सा बन गए हैं. मानवाधिकार आयोग की अध्यक्षा गिरिजा व्यास चाहें तो प्रधानमंत्री कार्यालय से पीडितों को मुआवजा देने की मांग कर कती है. पर क्या मुआवजा देकर ही उठती आवाज़ को दबा देना इस समस्या का हल है?

इन नेताओं और अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों का क्या है? ये तो हर जगह समय पर हुँचने के लिए रास्ता जाम करवा देते हैं. पर क्या उन्होंने कभी सोचा है कि उनका यह कदम शायद किसी को समय से पहले ही ऊपर पहुंचा दे. सही बात है, इन्हें क्या मतलब? कीडे-मकोडे ही तो मर रहे हैं. कभी बम धमाकों में, कभी ट्रेन दुर्घटना में, कभी बाढ़ में, कभी सूखे में और हाँ अब जाम में भी. पर संवेदनहीन हो चुके इन मुर्दों की सुरक्षा तो ज्यादा जरुरी है ?

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सोमवार, 2 नवंबर 2009

जब राजधानी ही असुरक्षित हो?

शैले कुमार

लगभग दो हफ्ते पहले मथुरा रेल दुर्घटना के बाद मैंने रेलवे की मंगलमय यात्रा पर सवालिया निशान लगाते हुए एक लेख लिखा था, जिस पर पाठकों की अलग-अलग प्रतिक्रिया सामने आई. आपको बता दूँ कि इन दो हफ्तों के भीतर भारतीय रेलवे दो बार अपनी ढील-ढाल वाले रवैये की वजह से फिर से सुर्खियाँ बटोरती नज़र आई.

पश्चिम बंगाल के झारग्राम में राजधीनी एक्सप्रेस को रोककर पूरे पांच घंटे तक अपने कब्जे में रखकर माओवादियों ने अपनी ताकत एक बार फिर से पूरे देश को दिखा दी. ताज्जुब की बात ये रही कि राजधानी एक्सप्रेस, जिसका किराया हरेक वर्ष हवाई यात्रा के किरायों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है, उस ट्रेन में भी सुरक्षा के पुख्ते इंतजामात नहीं थे. वो भी तब जब माओवादियों ने राज्य में उत्पात मचाया है.

लेकिन एक बात हज़म नहीं होती. माओवादियों ने इतनी देर तक ट्रेन को रोककर रखा, पर किसी भी यात्री को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया. साथ ही पांच घंटे तक रेलवे पुलिस के जवान ट्रेन तक नहीं पहुच सके थे. और जब वे पहुचे भी तो बिना किसी खून खराबे के ट्रेन को माओवादियों के चंगुल से चुरा लिया गया.

यहाँ पर प्रदेश में सत्तारूढ़ सीपीअईएम् द्वारा रेल मंत्री ममता बनर्जी पर लगाये गए आरोपों में दम तो नज़र आ रहा है. माओवादी अपने जिस नेता छत्रधर महतो को छोड़ने की मांग कर रहे थे, उसे ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त है. साथ ही खड़गपुर में रेलवे सुरक्षा बल के जवानों ने अचानक ट्रेन क्यों छोड़ दी और राजधानी जैसी ट्रेन को बिना सुरक्षा बल के कैसे रवाना कर दिया गया?

ममता के सहयोगी शिशिर अधिकारी को इस बात की जानकारी थी कि राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाया जा सकता है. ऐसे में आखिर उन्होंने रेल मंत्रालय या गृह मंत्रालय को सूचित करना उचित क्यों नहीं समझा? ऐसी बहुत सी बातें हैं जो ममता को कटघरे में खडा कर रही हैं.

सभी जानते हैं कि कुछ समय पहले बंगाल में नैनो के आने के समय तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने कैसा बखेरा खडा किया था. सत्ता में आने की उसकी हर कोशिश अब तक नाकाम रही है. ममता पर तो सत्ता का नशा इस तरह सवार है कि वो कभी एनडीए तो कभी यूपीए के साथ नज़र आती है. कहने का मतलब है, जिधर मिला धन और चैन, उधर ही दौड़ गए नयन. ऐसे में अगर यह कहा जाये कि राजधीनी वाली घटना के पीछे कहीं न कहीं रेल मंत्री का भी हाथ है, तो इसमें ज्यादा संदेह वाली बात नहीं है. खैर जाँच जारी है. भले ही उसका निष्कर्ष कभी सामने ना आये.

सीपीअईएम् भी कोई साफ सुथरी नहीं है. बहाना तो खैर उसे भी मिल गया है बहती गंगा में हाथ धोने का. इसी बहाने आरोप प्रत्यारोप के बहाने वह मौके को थोडा भुनाने में लगी है. राजधानी प्रकरण को भी लेकर एक जबरदस्त राजनीतिक खेल चल रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

पर इसका खामियाजा भुगत रही है आम जनता. वही जनता जो घंटों लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदती है और उसके बाद भी समय से और सुरक्षित तरीके से अपना सफ़र पूरा नहीं कर पाती. कभी लटक कर यात्रा करती है, कभी रेल दुर्घटना में मरती है, तो कभी डकैती का शिकार होती है. कुछ भी हो पर, पिसती आम जनता ही है. पर अब तो चिंता और भी बढ़ गयी है. दूसरी ट्रेनों का क्या होगा, जब राजधानी ही असुरक्षित हो?


शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

देर आये, पर दुरुस्त आये


शैलेश कुमार, नई दिल्ली

न्यूज़ चैनल बदलते-बदलते अचानक नज़र पड़ी एक ब्रेकिंग न्यूज़ पर. जो मोटे-मोटे अक्षरों में चैनलों द्वारा टेलिविज़न स्क्रीन पर परोसी जा रही थी. खबर थी के जम्मू और कश्मीर में प्रीपेड मोबाइल कनेक्शन पर सरकार पाबन्दी लगाने जा रही है. पहले तो मन चिढ सा गया कि आखिर ये कैसा निर्णय है जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ेगा. लेकिन जब इस पर विचार किया तो लगा कि भले ही यह एक कठोर निर्णय हो, पर आतंकवाद पर लगाम कसने की दिशा में यह एक सराहनीय कदम है.

जम्मू की निवासी अंशु कौल जब प्रदेश में आतंकी गतिविधियों के बारे में बात करती हैं तो उनका चेहरा गुस्से से तमतमा उठता है, जैसे किसी प्रतिशोध की आग में जल रही हो. अंशु इस पाबन्दी का समर्थन करती हुई कहती हैं कि सरकार को तो यह निर्णय काफी पहले ही ले लेना चाहिए था. अंशु की बात में दम तो है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उत्तर प्रदेश में जब स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) का गठन किया गया था तो उस समय उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी मोबाइल नेटवर्क की वजह से ही झेलनी पड़ी थी. चलिए, अब तो कम से कम टेक्नोलॉजी इतनी विकसित हो ही चुकी हैकि आज के समय में मोबाइल नेटवर्क का सामना करना कोई बड़ी बात नहीं रह गयी है. पर फिर भी, टेलिकॉम कंपनियों ने प्रीपेड कनेक्शन देने में जिस प्रकार से लापरवाही दिखाई है, उसने घाटी में सुरक्षा बलों की मुसीबतों को जरुर बढा दिया है.

अगर इस प्रकरण में थोडा गौर फ़रमाया जाये तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि देश में टेलिकॉम कंपनियों के उभरने के दौरान लगभग सभी सरकारों ने लापरवाही दिखाई है. यहाँ पर फ़िलहाल सुर्खियों में छाए टेलिकॉम सम्बन्धी घोटालों और आरोप-प्रत्यारोपों को अलग रखकर ही बात करें तो अच्छा होगा. नहीं तो यह एक ऐसा मुद्दा है, जो बहुत से लोगों को अपनी चपेट में ले सकती है.

पाबन्दी लगाने का निर्णय काफी हद तक ठीक है. पर क्या ऐसी परिस्थिति को उत्पन्न होने से रोका नहीं जा सकता था? यदि सरकार टेलिकॉम कंपनियों पर मजबूती से अपना शिकंजा जमाये रखती तो शायद आज ऐसी नौबत ही नहीं आती. यदि टेलिकॉम कम्पनियाँ बांटे गए प्रीपेड कनेक्शन का ठीक तरीके से हिसाब नहीं रख रही है और एक आदमी के नाम पर कई कनेक्शन जारी किये गए हैं, तो यह एक बहुत बड़ी लापरवाही है और इसमें सरकार का लचीलापन साफ-साफ झलकता है.

माफ़ कीजियेगा मेरा यहाँ पर ऐसी चूक के लिए केवल टेलिकॉम कंपनियों या सरकार को दोषी ठहराने का कोई इरादा नहीं है. मैं पूछता हूँ कश्मीर की उस आवाम से जो प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगाने के बाद भड़क उठी है और सड़कों पर आ गयी है. जब आपको मालूम है कि आपको अपने नाम पर ज्यादा कनेक्शन नहीं रखने चाहिए तो आपने ऐसा किया ही क्यों? आखिर क्यों नहीं आपने कम्पनियों को अपने बारे में सही जानकारी उपलब्ध करवाई? क्यों आपने उन कम्पनियों को धोखा दिया या फिर उन्हें बेवकूफ बनाकर उनका फ़ायदा उठाया? आपकी आड़ में आतंकियों ने इसका फ़ायदा उठाया. आपको ही अपना शिकार बनाते रहे, पर आप अपनी इस अनुशासनहीनता का चुपचाप मज़ा लेते रहे और कभी अपना मुह भी नहीं खोला. लेकिन आज पाबन्दी लगने के बाद आपके गले में आवाज़ आ गयी है. दोस्तों सिर्फ प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगायी गई है, पोस्ट पेड अभी भी चलता रहेगा. तो इसमें इतना भड़कने वाली कौन सी बात है?

वैसे देखा जाये तो टेलिकॉम कम्पनियों ने केवल कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के लगभग हिस्सों में ऐसी ही लापरवाही दिखाई है. प्रीपेड कनेक्शन का सही लेखा-जोखा अभी भी उनके पास उपलब्ध नहीं है. सूत्रों से पता चला है कि दिल्ली में तो कुछ साल पहले प्रीपेड सिम कार्ड्स ऐसे ही बाँट दिए गए थे. आवेदन पत्र आदि तो बाद में भरवाए गए थे. बंगलोर में भी कुछ समय पहले कुछ ऐसा ही वाकया देखने और सुनने को मिला. मुंबई जैसा संवेदनशील माना जाने वाला शहर भी इससे अछूता नहीं रहा है. जाहिर सी बात है कि सरकार को अब इन शहरों और प्रदेशों की ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. पर कश्मीर में यह ज्यादा जरुरी इसीलिए बन गया था कि वहां हुर्रियत जैसे कई अलगाववादी संगठन हैं, आतंकवादी दस्ते हैं. ऐसे में उन पर लगाम कसने के लिए यह बेहद जरुरी बन गया था.

कश्मीर के मेरे मित्र आमिर बशीर और सैयद ताहिर बुखारी की मैं उन बातों को अपने जेहन से निकल नहीं सकता जिसमे उन्होंने आतंकियों की क्रूरता का आँखों देखा हाल सुनाया था मुझे. अपनों को अपनी आँखों के सामने लुटने और खोने का गम झलकता था उसमें. आज भी कश्मीर से मेरी मुह बोली बहन नेहा धर की वो बातें मेरे कानों में गूंजती हैं कि अपने २२ साल की उम्र में भी कभी वो धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की सुन्दरता को इस खौफ से ठीक से नहीं देख पाई कि कहीं आंतकवादी न आ धमकें. वो कहती थी कि जब एक बार घर से कोई बाहर निकल गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वो सही सलामत घर लौट आएगा. तो अब आप ही बताइए अगर ऐसे आतंकियों के विरुद्ध अपनी मुहिम को थोडा और धारदार बनाने के लिए सरकार ने प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगाने का यह फैसला लिया है तो इसमें क्या गलत है? क्या वहां की आवाम अपनी और अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए थोडी और कुर्बानी नहीं दे सकती?

अंत में सरकार से यही कहना चाहूँगा: देर आये, पर दुरुस्त आये.

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बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

मंगलमय या खूनी यात्रा?


शैलेश
कुमार


आपकी यात्रा मंगलमय हो. देश के करोडों लोग जो रेल से सफ़र करते हैं, भारतीय रेल द्वारा जगह-जगह प्रयोग की गई इस युक्ति से वाकिफ होंगे. लेकिन एक के बाद एक लगातार हो रही रेल दुर्घटनाओं ने अब यह सवालिया निशान पैदा कर दिया है कि भारतीय रेल की यात्रा वास्तव में कितनी मंगलमय है?

कहने को भारतीय रेलवे विश्व की सबसे बड़ी रेलवे में गिनी जाती है. रेलवे के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल रेलवे रूट 63,327 किलोमीटर का है। इसमें 4,982 किलोमीटर बड़ी लाइन, 10,621 किलोमीटर मीटर गेज और 2,886 किलोमीटर छोटी लाइन है। कुल 16 जोन तथा 68 मंडलों में बंटा रेलवे प्रतिदिन करीब 9,500 ट्रेन चलाता है। एक करोड़ 70 लाख से भी ज्यादा लोग रोजाना ट्रेन में सफर करते हैं। इनमें से करीब 4,000 ट्रेनें लंबी दूरी की हैं।

इतना ही नहीं, अब तो रेलवे बुलेट ट्रेन चलने का सपना देख रहा है. देश के भूतपूर्व रेलवे मंत्री लालू प्रसाद यादव जापान की यात्रा से वापस लौटने के बाद बड़े जोश में थे, इसी समय उन्होंने भारत में बुलेट ट्रेन चलने का ऐलान भी कर डाला था. लेकिन, भारतीय रेलवे जो कि 40-60 किमी की रफ़्तार से भी चलने वाली ट्रेनों को दुर्घटना से नहीं बचा पा रहा है, क्या उससे 130-150 किमी की रफ़्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन को सही सलामत चलने की उम्मीद की जा सकती है?

दुर्घटनाओं से तो जैसे भारतीय रेल का गहरा नाता रहा है. कोई भी साल ऐसा नहीं जाता जब रेल दुर्घटना में सैकडों लोग अपनी जान नहीं गंवाते. कुछ समय पहले उडीसा के झाझपुर में घटी रेल दुर्घटना की यादें अभी लोगों के जेहन से निकली भी नहीं थी कि बुधवार तडके सुबह मथुरा के समीप हुए रेल दुर्घटना ने लोगों को फिर से झझकोर कर रख दिया. मथुरा से आठ किलोमीटर दूर खड़ी मेवाड़ एक्सप्रेस को पीछे से तेज़ रफ़्तार से आ रही गोवा संपर्क क्रांति ने ज़ोरदार टक्कड़ मार दी. नतीजतन मेवाड़ एक्सप्रेस की पिछली बोगी पूरी तरह से चकनाचूर हो गई.

घंटों तक समाचार चैनलों पर यही खबर चलती रही कि गोवा एक्सप्रेस के ड्राईवर ने सिग्नल तोड़ दिया और यह घटना घट गई. लेकिन इन्ही समाचार चैनलों पर प्रसारित होने के घंटों पूर्व जो जानकारी मेरे एक साथी पत्रकार मित्र से मुझे प्राप्त हुई, और जो एक समाचार पत्र ने अपनी वेबसाइट पर घटना के कुछ मिनटों के बाद प्रकाशित किया था, वह चौकाने वाली थी. पता चला कि कुछ आरोपियों को पेशगी के लिए ट्रेन से ले जाया जा रहा था. उनके भागने के वजह से पुलिस वालों ने ट्रेन की जंजीर खीचकर उसे रोक दिया. जिसकी वजह से यह दुर्घटना घटी. अब तक तीनो पुलिस वालों को निलंबित कर दिया गया है.

लेकिन यहाँ पर गौर फरमाने वाली बात यह है कि जब ट्रेन की जंजीर खीचकर मेवाड़ एक्सप्रेस को रोका गया तो इसकी जानकारी ट्रेन के ड्राईवर ने स्टेशन मास्टर को क्यों नहीं दी? इस छोटी सी चूक की वजह से इतनी बड़ी दुर्घटना घट गयी. जाहिर सी बात है, जाँच के आदेश दे दिए गए हैं. पर भाई, आज तक केवल आदेश ही तो दिए गए हैं, कमेटियां बनाई गयी हैं. इनमे से कितनी कमेटियों की रिपोर्ट सामने आई है अब तक? कितनो को सजा मिल पाई है?

इतनी बड़ी दुर्घटना घट गयी, पर घंटों तक रेल मंत्री की तरफ से कोई बयान नहीं आया था. शायद वो आराम फार्म रही थीं. उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री अवसर को भुनाने के लिए नास्ता और चाय लेकर आराम से घटनास्थल पर पहुच गए और मृतकों के परिवारजनों के लिए दस लाख रूपये का मुआवजा और एक सदस्य के लिए नौकरी की तत्काल मांग कर डाली. सोचा शायद लोगों की सहानभूति अगले चुनाव में उनका वोट बैंक बढा देगी. सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन जब वहां पहुचे तो ऐसा लगा जैसे अभी भी क्रिकेट का जूनून उनके सर से उतरा नहीं है. काला चश्मा और टोपी अभी भी उनके साथ थी. बोलने के स्टाइल से लगता था जैसे कोई कप्तान मैच हारने के बाद मैदान में कमेंटेटर के सामने अफ़सोस जाता रहा हो.

मीडिया वालो की तो जैसे चांदी हो गयी. दे दनादन चैनल वालों ने मोटे-मोटे अक्षरों में ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर दुर्घटना के बारे में बताना शुरू किया. कोई 50, तो कोई 20, तो कोई 10 के मरने की आशंका जाता रहा था. एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल ने फ़ोन पर एक यात्री की बाईट ले ली. अंत में पता चल कि वो मोतरमा तो कई बोगी दूर आराम से एसी कोच में बैठी थी. जब दोपहर होने को आई तब जाकर कैदियों के भागने और जंजीर खीचने वाली बात चैनलों पर आनी शुरू हुई.

इस लेख के माध्यम से मेरा रेलवे के प्रति गुस्सा निकलने का कोई मकसद नहीं है. मै तो बस इतना चाहता हूँ कि रेलवे लोगों के जीवन की कीमत पहचाने. यात्रियों की सुरक्षा का केवल दावा न करे, बल्कि सही मायने में उन्हें सुरक्षा प्रदान करे. अब मै आपको बताता हूँ. बिहार के भागलपुर में तक़रीबन दो साल पहले एक जीर्ण-शीर्ण पुल के दानापुर-हावडा एक्सप्रेस के डिब्बों पर गिर जाने से सैकडों यात्रियों की मौत हो गयी थी. उसके बाद भी रेलवे ने शायद कोई सबक नहीं लिया. बंगलोर के कृष्णराज पुरम रेलवे स्टेशन के समीप अभी भी एक छोटा सा पुराना पुल जो कि नए फ्लाईओवर बन जाने के बाद अब उपयोग में नहीं है, उसे अभी तक ढहाया नहीं गया है. पिछले 6 वर्षों से ट्रेनें उसी पुल के नीचे से सरसराती हुई निकल रही है. कभी भी ट्रेन की कम्पन से यह पुल उनकी बोगी पर गिर सकता है. पर रेलवे प्रशासन का इस ओर कोई ध्यान नहीं है.

देश भर में इस तरह की कई खामियां हैं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर सुधारे जाने की आवश्यकता है. वक़्त रहते यदि रेलवे ने आँखें नहीं खोली तो रेलवे की मंगलमय यात्रा पर भला कौन विश्वास करेगा. यात्रियों को चाहिए सुरक्षा, समय-पालन न कि दुर्घटनाएं और डकैतियां. देश की जनता और रेलवे को मिलजुल कर सुरक्षा बढ़ने की दिशा में प्रयास करने चाहिए. नहीं तो बुलेट ट्रेन का सपना मुंगेरीलाल का सपना बनकर ही रह जायेगा.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

आपको पैदा करने की ये कैसी सजा ?

शैलेश कुमार

उनके पास तो अब केवल सिसकियाँ ही बची हैं. छुप-छुप के आंसू बहाने के सिवा उनके पास और बचा ही क्या है? कहने को बस एक ही सदस्य कम हुआ हो, पर परिवार तो पूरा बिखर गया ना. किसी एक परिवार की कहानी नहीं है ये. देश भर में लाखों ऐसे परिवार हैं जिनके जिगर के टुकड़े कभी नक्सल, तो कभी आंतकवादी, कभी गुंडे, तो कभी खुद पुलिस का शिकार होकर हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा ले लिए. हाँ दो-चार दिन के लिए मीडिया ने उन्हें मरने के बाद हीरो बनाया, मरणोपरांत सरकार ने मेडल देकर सम्मानित किया. लेकिन उसके बाद क्या हुआ? इतिहास के पन्नों में कहीं दब गए वे. पता नहीं किस लाइब्रेरी में और कहाँ दीमक खाती किताबों में दब गयी उनकी वीरता की गाथाएं.

पर जिस देश, जिस प्रदेश, जिस जनता के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया, उन्हें क्या मिला इसके बदले? बोफोर्स और चारा घोटाला? बेरोजगारी और भुखमरी? सूखा और बाढ़? अपहरण और बलात्कार? हत्या और डकैती? महंगाई और प्याज के आंसू? या फिर किसानों की आत्महत्या और उसे भुनाकर सत्ता में काबिज होते चटोरे जनप्रतिनिधि?

दशकों से बस एक ही बात कहते आ रहे हैं, नक्सल देश के लिए खतरा है, आतंकवाद देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. भ्रष्ट्राचार हर बुराई की जड़ है. मंत्री जी अब तो छोटा बच्चा भी टीवी चैनलों पर आपकी इन बातों को सुनकर समझ गया है कि ये सभी चीज़ें बुरी है, मुसीबत है. पर सिर्फ बोलते ही रहेंगे, या कुछकरेंगे भी? करेंगे तो कब करेंगे, तब जब सौ में से अस्सी परिवार का सपूत इनकी आड़ में पिस चुका होगा? या फिर तब, जब लोगों की अर्थी को कन्धा देने के लिए उनके परिवार का एक भी सम्बन्धी जिन्दा नहीं होगा? या फिर आप उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब टुकडों में बँटा होगा यह देश, और उसकी नीलामी हो रही होगी?

अरे बंद कीजिये ये घिसे-पिटे भाषण, झूठी सहानभूति और झूठे वादे. आप क्या सोचते हैं, कुछ हथियारबंद पुलिस वालों को जंगल में उतार कर आप नक्सलवाद को मिटा देंगे? कारगिल की पहाडियों पर चंद सैनिकों को चढाकर आतंकवाद को मिटा देंगे? दंगे फसाद के समय रैपिड एक्शन फोर्स को बुलाकर दंगे रुकवा देंगे? या फिर नरेगा जैसी भ्रस्ट स्कीम को लाकर किसानों को आत्महत्या करने से रोक लेंगे? नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते. ये आपको भी पता है.

फिर क्या चाहते हैं आप? जनता की भलाई का झूठा नाटक कर उनका विश्वाश जीतना? उनके पैसों पे फाइव स्टार होटलों में रहकर ऐश करना? या फिर अपना उल्लू सीधा करने के लिए देश को ही बेच देना? माफ़ कीजियेगा, थोड़े कटु शब्दों का प्रयोग किया है मैंने, पर ये तो बतला दीजिये इसमें से कितना परसेंट गलत है? बताइए, बताइए...

हे सरकार, प्रभु, हमारे माई-बाप, अगर हम देशवासियों की आपको इतनी ही फिक्र है तो मत चलवाइए जंगलो में गोली. बंगाल से सबक मिल ही गया होगा. जाइये उनकी समस्याओं से रूबरू होइए और उसे हल कीजिये. नक्सलवाद अपने आप समाप्त हो जायेगा. हेलीकॉप्टर से यात्रा करने पर तो बाढ़ में भी आपको हर जगह पानी का लेवल एक जैसा ही दिखता होगा, जरा नीचे उतरकर उस पानी में चलकर उसकी गहराई को तो नापिये. लोगों को दो वक़्त की रोटी का जुगार करा दीजिये, असंतोष मिट जायेगा. ये मिटा तो आतंकवाद भी कम होगा. नरेगा को चलने दीजिये, पर कभी ये तो देखिये की उसका लाभ वास्तव में किसानो और ग्रामीणों को मिल भी पा रहा है या नहीं? फिर देखिये किसानो की आत्महत्या कैसे कम होती है?

मंत्री जी भाषण तो आप लिखा हुआ पढ़ देते हैं, पर कभी ये तो जानने की कोशिश कीजिये की जो आई.ए.एस अधिकारी आपकी जी-हुजूरी बजाकर आपके लिए यह भाषण लिख रहा है, उसने अपनी पढाई के दौरान क्या-क्या कष्ट झेला है? राजनीति को गन्दा बनाने से पहले एक बार ये तो सोचिये कि कितने लाख लोगों कि हाय आपको लगने वाली है? देश को बेचने से पहले एक बार यह तो सोच लीजिये कि उसका कसूर क्या है? क्या यही कि उसने आप जैसे नेता को पैदा किया?

... आपको पैदा करने की ये कैसी सजा है?