शुक्रवार, 13 मार्च 2009

नेताओं की मेहरबानी से
शैलेश कुमार
चुनाव का बिगुल एक बार फिर से बज चुका है. लोकसभा चुनाव और कई राज्यों मे विधान सभा चुनाव सर पर हैं. राजनीतिक दलों ने एक बार फिर से अपने-अपने पत्ते फेंकने शुरू कर दिए हैं। जोड़-तोड़ शुरू हो गई है. आरोप-प्रत्यारोप का दौड़ भी शुरू हो चुका है.
एक बार फिर से बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं। जनता-जनार्दन की याद फिर से राजनेताओं को आई है. पाँच साल तक जिन्हे अपनी जनता को प्रणाम करने तक की याद नही थी, वे आज उनके चरण छूने को भी तैयार हैं.
इस बार फिर से चुनाव घोषणा पत्र बने हैं। बड़े-बड़े वादे किए गये हैं। रोज़गार बढ़ने और ग़रीबी हटाने की बात लिखी गई है. अपने आप को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने की मुहिम जारी है.
इन्हीं सब बातों को तो हिन्दुस्तान की आवाम पिछले साठ वर्षों से सुनती चली आ रही है। कितनी ही सरकारें आई और चली गई लेकिन भूख, ग़रीबी व बेरोज़गारी आज भी वही की वही हैं। इतने सालों मे जापान कहाँ से कहाँ पहुँच गया, पर भारत केवल सरकार चुनने और सरकार गिराने मे ही लगा रहा.
एक के बाद एक सरकार आती रही और जनता को लूटती रही। विकास के नाम परग़रीबों को ग़रीब और अमीरों को अमीर बनाती चली गई। पन्नों पर विकास दिखता गया पर देश अंदर से खोखला होता चला गया.
ग़रीबी से तंग आकर किसान आत्महत्या करते रहे। भूखे और नंगे बच्चे सड़कों पर भीख माँगते रहे। असहाय महिलाएँ हर रोज़ अपनी अस्मत लूटाकर अपना और परिवार का पेट पालती रहीं. माननीय नेतागण जनता के बीच जाति और संप्रदायवाद का बीज बोते रहे और उन्हे आपस में लड़ाकार अपना उल्लू सीधा करते रहें।
इन साठ सालों मे पता नहीं इस देश ने क्या पाया, पर हमारे नेताओं की मेहरबानी से स्लम्डॉग बनाकर एक ऑस्कर ज़रूर पा लिया। आगे भी सरकारें आती रहेंगी, और हर पाँच साल मे कम से कम एक ऑस्कर तो ज़रूर मिलता रहेगा इन नेताओं की मेहरबानी से.