शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

देर आये, पर दुरुस्त आये


शैलेश कुमार, नई दिल्ली

न्यूज़ चैनल बदलते-बदलते अचानक नज़र पड़ी एक ब्रेकिंग न्यूज़ पर. जो मोटे-मोटे अक्षरों में चैनलों द्वारा टेलिविज़न स्क्रीन पर परोसी जा रही थी. खबर थी के जम्मू और कश्मीर में प्रीपेड मोबाइल कनेक्शन पर सरकार पाबन्दी लगाने जा रही है. पहले तो मन चिढ सा गया कि आखिर ये कैसा निर्णय है जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ेगा. लेकिन जब इस पर विचार किया तो लगा कि भले ही यह एक कठोर निर्णय हो, पर आतंकवाद पर लगाम कसने की दिशा में यह एक सराहनीय कदम है.

जम्मू की निवासी अंशु कौल जब प्रदेश में आतंकी गतिविधियों के बारे में बात करती हैं तो उनका चेहरा गुस्से से तमतमा उठता है, जैसे किसी प्रतिशोध की आग में जल रही हो. अंशु इस पाबन्दी का समर्थन करती हुई कहती हैं कि सरकार को तो यह निर्णय काफी पहले ही ले लेना चाहिए था. अंशु की बात में दम तो है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उत्तर प्रदेश में जब स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) का गठन किया गया था तो उस समय उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी मोबाइल नेटवर्क की वजह से ही झेलनी पड़ी थी. चलिए, अब तो कम से कम टेक्नोलॉजी इतनी विकसित हो ही चुकी हैकि आज के समय में मोबाइल नेटवर्क का सामना करना कोई बड़ी बात नहीं रह गयी है. पर फिर भी, टेलिकॉम कंपनियों ने प्रीपेड कनेक्शन देने में जिस प्रकार से लापरवाही दिखाई है, उसने घाटी में सुरक्षा बलों की मुसीबतों को जरुर बढा दिया है.

अगर इस प्रकरण में थोडा गौर फ़रमाया जाये तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि देश में टेलिकॉम कंपनियों के उभरने के दौरान लगभग सभी सरकारों ने लापरवाही दिखाई है. यहाँ पर फ़िलहाल सुर्खियों में छाए टेलिकॉम सम्बन्धी घोटालों और आरोप-प्रत्यारोपों को अलग रखकर ही बात करें तो अच्छा होगा. नहीं तो यह एक ऐसा मुद्दा है, जो बहुत से लोगों को अपनी चपेट में ले सकती है.

पाबन्दी लगाने का निर्णय काफी हद तक ठीक है. पर क्या ऐसी परिस्थिति को उत्पन्न होने से रोका नहीं जा सकता था? यदि सरकार टेलिकॉम कंपनियों पर मजबूती से अपना शिकंजा जमाये रखती तो शायद आज ऐसी नौबत ही नहीं आती. यदि टेलिकॉम कम्पनियाँ बांटे गए प्रीपेड कनेक्शन का ठीक तरीके से हिसाब नहीं रख रही है और एक आदमी के नाम पर कई कनेक्शन जारी किये गए हैं, तो यह एक बहुत बड़ी लापरवाही है और इसमें सरकार का लचीलापन साफ-साफ झलकता है.

माफ़ कीजियेगा मेरा यहाँ पर ऐसी चूक के लिए केवल टेलिकॉम कंपनियों या सरकार को दोषी ठहराने का कोई इरादा नहीं है. मैं पूछता हूँ कश्मीर की उस आवाम से जो प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगाने के बाद भड़क उठी है और सड़कों पर आ गयी है. जब आपको मालूम है कि आपको अपने नाम पर ज्यादा कनेक्शन नहीं रखने चाहिए तो आपने ऐसा किया ही क्यों? आखिर क्यों नहीं आपने कम्पनियों को अपने बारे में सही जानकारी उपलब्ध करवाई? क्यों आपने उन कम्पनियों को धोखा दिया या फिर उन्हें बेवकूफ बनाकर उनका फ़ायदा उठाया? आपकी आड़ में आतंकियों ने इसका फ़ायदा उठाया. आपको ही अपना शिकार बनाते रहे, पर आप अपनी इस अनुशासनहीनता का चुपचाप मज़ा लेते रहे और कभी अपना मुह भी नहीं खोला. लेकिन आज पाबन्दी लगने के बाद आपके गले में आवाज़ आ गयी है. दोस्तों सिर्फ प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगायी गई है, पोस्ट पेड अभी भी चलता रहेगा. तो इसमें इतना भड़कने वाली कौन सी बात है?

वैसे देखा जाये तो टेलिकॉम कम्पनियों ने केवल कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के लगभग हिस्सों में ऐसी ही लापरवाही दिखाई है. प्रीपेड कनेक्शन का सही लेखा-जोखा अभी भी उनके पास उपलब्ध नहीं है. सूत्रों से पता चला है कि दिल्ली में तो कुछ साल पहले प्रीपेड सिम कार्ड्स ऐसे ही बाँट दिए गए थे. आवेदन पत्र आदि तो बाद में भरवाए गए थे. बंगलोर में भी कुछ समय पहले कुछ ऐसा ही वाकया देखने और सुनने को मिला. मुंबई जैसा संवेदनशील माना जाने वाला शहर भी इससे अछूता नहीं रहा है. जाहिर सी बात है कि सरकार को अब इन शहरों और प्रदेशों की ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. पर कश्मीर में यह ज्यादा जरुरी इसीलिए बन गया था कि वहां हुर्रियत जैसे कई अलगाववादी संगठन हैं, आतंकवादी दस्ते हैं. ऐसे में उन पर लगाम कसने के लिए यह बेहद जरुरी बन गया था.

कश्मीर के मेरे मित्र आमिर बशीर और सैयद ताहिर बुखारी की मैं उन बातों को अपने जेहन से निकल नहीं सकता जिसमे उन्होंने आतंकियों की क्रूरता का आँखों देखा हाल सुनाया था मुझे. अपनों को अपनी आँखों के सामने लुटने और खोने का गम झलकता था उसमें. आज भी कश्मीर से मेरी मुह बोली बहन नेहा धर की वो बातें मेरे कानों में गूंजती हैं कि अपने २२ साल की उम्र में भी कभी वो धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की सुन्दरता को इस खौफ से ठीक से नहीं देख पाई कि कहीं आंतकवादी न आ धमकें. वो कहती थी कि जब एक बार घर से कोई बाहर निकल गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वो सही सलामत घर लौट आएगा. तो अब आप ही बताइए अगर ऐसे आतंकियों के विरुद्ध अपनी मुहिम को थोडा और धारदार बनाने के लिए सरकार ने प्रीपेड कनेक्शन पर पाबन्दी लगाने का यह फैसला लिया है तो इसमें क्या गलत है? क्या वहां की आवाम अपनी और अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए थोडी और कुर्बानी नहीं दे सकती?

अंत में सरकार से यही कहना चाहूँगा: देर आये, पर दुरुस्त आये.

संपर्क:
shaileshfeatures@gmail.com

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

मंगलमय या खूनी यात्रा?


शैलेश
कुमार


आपकी यात्रा मंगलमय हो. देश के करोडों लोग जो रेल से सफ़र करते हैं, भारतीय रेल द्वारा जगह-जगह प्रयोग की गई इस युक्ति से वाकिफ होंगे. लेकिन एक के बाद एक लगातार हो रही रेल दुर्घटनाओं ने अब यह सवालिया निशान पैदा कर दिया है कि भारतीय रेल की यात्रा वास्तव में कितनी मंगलमय है?

कहने को भारतीय रेलवे विश्व की सबसे बड़ी रेलवे में गिनी जाती है. रेलवे के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल रेलवे रूट 63,327 किलोमीटर का है। इसमें 4,982 किलोमीटर बड़ी लाइन, 10,621 किलोमीटर मीटर गेज और 2,886 किलोमीटर छोटी लाइन है। कुल 16 जोन तथा 68 मंडलों में बंटा रेलवे प्रतिदिन करीब 9,500 ट्रेन चलाता है। एक करोड़ 70 लाख से भी ज्यादा लोग रोजाना ट्रेन में सफर करते हैं। इनमें से करीब 4,000 ट्रेनें लंबी दूरी की हैं।

इतना ही नहीं, अब तो रेलवे बुलेट ट्रेन चलने का सपना देख रहा है. देश के भूतपूर्व रेलवे मंत्री लालू प्रसाद यादव जापान की यात्रा से वापस लौटने के बाद बड़े जोश में थे, इसी समय उन्होंने भारत में बुलेट ट्रेन चलने का ऐलान भी कर डाला था. लेकिन, भारतीय रेलवे जो कि 40-60 किमी की रफ़्तार से भी चलने वाली ट्रेनों को दुर्घटना से नहीं बचा पा रहा है, क्या उससे 130-150 किमी की रफ़्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन को सही सलामत चलने की उम्मीद की जा सकती है?

दुर्घटनाओं से तो जैसे भारतीय रेल का गहरा नाता रहा है. कोई भी साल ऐसा नहीं जाता जब रेल दुर्घटना में सैकडों लोग अपनी जान नहीं गंवाते. कुछ समय पहले उडीसा के झाझपुर में घटी रेल दुर्घटना की यादें अभी लोगों के जेहन से निकली भी नहीं थी कि बुधवार तडके सुबह मथुरा के समीप हुए रेल दुर्घटना ने लोगों को फिर से झझकोर कर रख दिया. मथुरा से आठ किलोमीटर दूर खड़ी मेवाड़ एक्सप्रेस को पीछे से तेज़ रफ़्तार से आ रही गोवा संपर्क क्रांति ने ज़ोरदार टक्कड़ मार दी. नतीजतन मेवाड़ एक्सप्रेस की पिछली बोगी पूरी तरह से चकनाचूर हो गई.

घंटों तक समाचार चैनलों पर यही खबर चलती रही कि गोवा एक्सप्रेस के ड्राईवर ने सिग्नल तोड़ दिया और यह घटना घट गई. लेकिन इन्ही समाचार चैनलों पर प्रसारित होने के घंटों पूर्व जो जानकारी मेरे एक साथी पत्रकार मित्र से मुझे प्राप्त हुई, और जो एक समाचार पत्र ने अपनी वेबसाइट पर घटना के कुछ मिनटों के बाद प्रकाशित किया था, वह चौकाने वाली थी. पता चला कि कुछ आरोपियों को पेशगी के लिए ट्रेन से ले जाया जा रहा था. उनके भागने के वजह से पुलिस वालों ने ट्रेन की जंजीर खीचकर उसे रोक दिया. जिसकी वजह से यह दुर्घटना घटी. अब तक तीनो पुलिस वालों को निलंबित कर दिया गया है.

लेकिन यहाँ पर गौर फरमाने वाली बात यह है कि जब ट्रेन की जंजीर खीचकर मेवाड़ एक्सप्रेस को रोका गया तो इसकी जानकारी ट्रेन के ड्राईवर ने स्टेशन मास्टर को क्यों नहीं दी? इस छोटी सी चूक की वजह से इतनी बड़ी दुर्घटना घट गयी. जाहिर सी बात है, जाँच के आदेश दे दिए गए हैं. पर भाई, आज तक केवल आदेश ही तो दिए गए हैं, कमेटियां बनाई गयी हैं. इनमे से कितनी कमेटियों की रिपोर्ट सामने आई है अब तक? कितनो को सजा मिल पाई है?

इतनी बड़ी दुर्घटना घट गयी, पर घंटों तक रेल मंत्री की तरफ से कोई बयान नहीं आया था. शायद वो आराम फार्म रही थीं. उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री अवसर को भुनाने के लिए नास्ता और चाय लेकर आराम से घटनास्थल पर पहुच गए और मृतकों के परिवारजनों के लिए दस लाख रूपये का मुआवजा और एक सदस्य के लिए नौकरी की तत्काल मांग कर डाली. सोचा शायद लोगों की सहानभूति अगले चुनाव में उनका वोट बैंक बढा देगी. सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन जब वहां पहुचे तो ऐसा लगा जैसे अभी भी क्रिकेट का जूनून उनके सर से उतरा नहीं है. काला चश्मा और टोपी अभी भी उनके साथ थी. बोलने के स्टाइल से लगता था जैसे कोई कप्तान मैच हारने के बाद मैदान में कमेंटेटर के सामने अफ़सोस जाता रहा हो.

मीडिया वालो की तो जैसे चांदी हो गयी. दे दनादन चैनल वालों ने मोटे-मोटे अक्षरों में ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर दुर्घटना के बारे में बताना शुरू किया. कोई 50, तो कोई 20, तो कोई 10 के मरने की आशंका जाता रहा था. एक प्रतिष्ठित समाचार चैनल ने फ़ोन पर एक यात्री की बाईट ले ली. अंत में पता चल कि वो मोतरमा तो कई बोगी दूर आराम से एसी कोच में बैठी थी. जब दोपहर होने को आई तब जाकर कैदियों के भागने और जंजीर खीचने वाली बात चैनलों पर आनी शुरू हुई.

इस लेख के माध्यम से मेरा रेलवे के प्रति गुस्सा निकलने का कोई मकसद नहीं है. मै तो बस इतना चाहता हूँ कि रेलवे लोगों के जीवन की कीमत पहचाने. यात्रियों की सुरक्षा का केवल दावा न करे, बल्कि सही मायने में उन्हें सुरक्षा प्रदान करे. अब मै आपको बताता हूँ. बिहार के भागलपुर में तक़रीबन दो साल पहले एक जीर्ण-शीर्ण पुल के दानापुर-हावडा एक्सप्रेस के डिब्बों पर गिर जाने से सैकडों यात्रियों की मौत हो गयी थी. उसके बाद भी रेलवे ने शायद कोई सबक नहीं लिया. बंगलोर के कृष्णराज पुरम रेलवे स्टेशन के समीप अभी भी एक छोटा सा पुराना पुल जो कि नए फ्लाईओवर बन जाने के बाद अब उपयोग में नहीं है, उसे अभी तक ढहाया नहीं गया है. पिछले 6 वर्षों से ट्रेनें उसी पुल के नीचे से सरसराती हुई निकल रही है. कभी भी ट्रेन की कम्पन से यह पुल उनकी बोगी पर गिर सकता है. पर रेलवे प्रशासन का इस ओर कोई ध्यान नहीं है.

देश भर में इस तरह की कई खामियां हैं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर सुधारे जाने की आवश्यकता है. वक़्त रहते यदि रेलवे ने आँखें नहीं खोली तो रेलवे की मंगलमय यात्रा पर भला कौन विश्वास करेगा. यात्रियों को चाहिए सुरक्षा, समय-पालन न कि दुर्घटनाएं और डकैतियां. देश की जनता और रेलवे को मिलजुल कर सुरक्षा बढ़ने की दिशा में प्रयास करने चाहिए. नहीं तो बुलेट ट्रेन का सपना मुंगेरीलाल का सपना बनकर ही रह जायेगा.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

आपको पैदा करने की ये कैसी सजा ?

शैलेश कुमार

उनके पास तो अब केवल सिसकियाँ ही बची हैं. छुप-छुप के आंसू बहाने के सिवा उनके पास और बचा ही क्या है? कहने को बस एक ही सदस्य कम हुआ हो, पर परिवार तो पूरा बिखर गया ना. किसी एक परिवार की कहानी नहीं है ये. देश भर में लाखों ऐसे परिवार हैं जिनके जिगर के टुकड़े कभी नक्सल, तो कभी आंतकवादी, कभी गुंडे, तो कभी खुद पुलिस का शिकार होकर हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा ले लिए. हाँ दो-चार दिन के लिए मीडिया ने उन्हें मरने के बाद हीरो बनाया, मरणोपरांत सरकार ने मेडल देकर सम्मानित किया. लेकिन उसके बाद क्या हुआ? इतिहास के पन्नों में कहीं दब गए वे. पता नहीं किस लाइब्रेरी में और कहाँ दीमक खाती किताबों में दब गयी उनकी वीरता की गाथाएं.

पर जिस देश, जिस प्रदेश, जिस जनता के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया, उन्हें क्या मिला इसके बदले? बोफोर्स और चारा घोटाला? बेरोजगारी और भुखमरी? सूखा और बाढ़? अपहरण और बलात्कार? हत्या और डकैती? महंगाई और प्याज के आंसू? या फिर किसानों की आत्महत्या और उसे भुनाकर सत्ता में काबिज होते चटोरे जनप्रतिनिधि?

दशकों से बस एक ही बात कहते आ रहे हैं, नक्सल देश के लिए खतरा है, आतंकवाद देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. भ्रष्ट्राचार हर बुराई की जड़ है. मंत्री जी अब तो छोटा बच्चा भी टीवी चैनलों पर आपकी इन बातों को सुनकर समझ गया है कि ये सभी चीज़ें बुरी है, मुसीबत है. पर सिर्फ बोलते ही रहेंगे, या कुछकरेंगे भी? करेंगे तो कब करेंगे, तब जब सौ में से अस्सी परिवार का सपूत इनकी आड़ में पिस चुका होगा? या फिर तब, जब लोगों की अर्थी को कन्धा देने के लिए उनके परिवार का एक भी सम्बन्धी जिन्दा नहीं होगा? या फिर आप उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब टुकडों में बँटा होगा यह देश, और उसकी नीलामी हो रही होगी?

अरे बंद कीजिये ये घिसे-पिटे भाषण, झूठी सहानभूति और झूठे वादे. आप क्या सोचते हैं, कुछ हथियारबंद पुलिस वालों को जंगल में उतार कर आप नक्सलवाद को मिटा देंगे? कारगिल की पहाडियों पर चंद सैनिकों को चढाकर आतंकवाद को मिटा देंगे? दंगे फसाद के समय रैपिड एक्शन फोर्स को बुलाकर दंगे रुकवा देंगे? या फिर नरेगा जैसी भ्रस्ट स्कीम को लाकर किसानों को आत्महत्या करने से रोक लेंगे? नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते. ये आपको भी पता है.

फिर क्या चाहते हैं आप? जनता की भलाई का झूठा नाटक कर उनका विश्वाश जीतना? उनके पैसों पे फाइव स्टार होटलों में रहकर ऐश करना? या फिर अपना उल्लू सीधा करने के लिए देश को ही बेच देना? माफ़ कीजियेगा, थोड़े कटु शब्दों का प्रयोग किया है मैंने, पर ये तो बतला दीजिये इसमें से कितना परसेंट गलत है? बताइए, बताइए...

हे सरकार, प्रभु, हमारे माई-बाप, अगर हम देशवासियों की आपको इतनी ही फिक्र है तो मत चलवाइए जंगलो में गोली. बंगाल से सबक मिल ही गया होगा. जाइये उनकी समस्याओं से रूबरू होइए और उसे हल कीजिये. नक्सलवाद अपने आप समाप्त हो जायेगा. हेलीकॉप्टर से यात्रा करने पर तो बाढ़ में भी आपको हर जगह पानी का लेवल एक जैसा ही दिखता होगा, जरा नीचे उतरकर उस पानी में चलकर उसकी गहराई को तो नापिये. लोगों को दो वक़्त की रोटी का जुगार करा दीजिये, असंतोष मिट जायेगा. ये मिटा तो आतंकवाद भी कम होगा. नरेगा को चलने दीजिये, पर कभी ये तो देखिये की उसका लाभ वास्तव में किसानो और ग्रामीणों को मिल भी पा रहा है या नहीं? फिर देखिये किसानो की आत्महत्या कैसे कम होती है?

मंत्री जी भाषण तो आप लिखा हुआ पढ़ देते हैं, पर कभी ये तो जानने की कोशिश कीजिये की जो आई.ए.एस अधिकारी आपकी जी-हुजूरी बजाकर आपके लिए यह भाषण लिख रहा है, उसने अपनी पढाई के दौरान क्या-क्या कष्ट झेला है? राजनीति को गन्दा बनाने से पहले एक बार ये तो सोचिये कि कितने लाख लोगों कि हाय आपको लगने वाली है? देश को बेचने से पहले एक बार यह तो सोच लीजिये कि उसका कसूर क्या है? क्या यही कि उसने आप जैसे नेता को पैदा किया?

... आपको पैदा करने की ये कैसी सजा है?