मंगलवार, 18 मई 2010

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हत्या नहीं, वध करें

शैलेश कुमार

मुझे आज भी वो रात याद है। हर दिन की तरह मैं ऑफिस से करीब रात १० बजे लौटा था और आते के साथ ही मैंने टीवी ट्यूनर कार्ड से चलने वाली टीवी को ऑन किया था। न्यूज़ चैनल लगाने के साथ ही मोटी-मोटी लाल रंग की हेडलाइन्स ने बरबस मुझे सब कुछ भुलाकर लगातार टीवी से चिपक जाने को मजबूर कर दिया। चैनल पर लगातार खबर आ रही थी कि आतंकवादियों ने देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर अब तक का सबसे बड़ा हमला बोला है।
पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि आतंकवादी देश के सुरक्षा घेरे को भेदकर इतना बड़ा हमला भी कर सकते हैं। पर अगले ही पल टीवी पर प्रसारित होते दृश्यों को देखकर तथा यह सोचकर कि देश में देशद्रोहियों की कमी नहीं है, मुझे यकीन हो गया कि इस बार हमला भारत को तोड़ने के उद्देश्य से किया गया है। उसे यह बताने के लिए किया गया है कि तुम्हारी अरबों की जनसंख्या की ज़िंदगी को नरक बनाने के लिए हम कुछ हज़ार आतंकवादी ही काफी हैं। मुझे विश्वास हो गया कि यह हमला इसलिए किया गया है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियों को बताया जा सके कि वे कितने सचेत हैं और अपने दायित्वों का निर्वाह कितनी गंभीरता से कर रहे हैं। समझ गया मैं कि यह हमला केवल सैकड़ों लोगों का खून बहाने के लिए नहीं किया गया था, बल्कि इसका मकसद उन करोड़ों लोगों के अभिमान को तोडना था कि केवल "सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा" गाकर और देश की विशालता की शेखी बघार कर वे अपने मुल्क को सभी विध्वंशकारी ताकतों से सुरक्षित रख पाएंगे।

चलो जो बीत गयी, सो बात गयी। लेकिन दिलों में घर कर गयी अपनों को खोने की वह कसक कैसे जाएगी सो कुछ गिने-चुने आतंकवादी उस २६ नवम्बर की रात को दे गए? उस परिवार का क्या जिसके घर में कमाने वाला एक सदस्य भी जीवित न रहा? उन बच्चों का जिन्होंने होश सँभालने से पहले ही अपने माँ या बाप या फिर दोनों को खो दिया? मोमबत्तियां तो अब मुंबई हमले की हर बरसी पर जलेंगी। अख़बारों के लेख, नेताओं के भाषण में मरने वालों का जिक्र हर २६ नवम्बर को किया जायेगा। लेकिन उन सैकड़ों परिवारों के लिए २००८ का वह २६ नवम्बर फिर से आ पायेगा क्या, जिस २६ नवम्बर की सुबह उनके अपने उन्हें यह भरोसा देकर घर से निकले थे कि ढलती शाम के साथ वे एक बार फिर मिलेंगे? खैर वो २६ नवम्बर तो फिर से आने को रहा, पर अब वर्ष के हर दिन को वो २६ नवम्बर बनने से रोका जा सकता है, जो सबके लिए तो नहीं, लेकिन बहुतों के लिए प्रलय बनकर आया। लेकिन ऐसा सरकार के चाहने से नहीं, हमारे चाहने से होगा क्योंकि तो कभी ऐसा चाहेगी ही नहीं।

यदि सरकार चाहती ही होती तो अब तक अफज़ल गुरु को फंसी हो चुकी होती। यदि आतंकवादियों को फंसी दे दी गयी होती तो कंधार की घटना न घटती। इसमें कोई शक नहीं अजमल कसाब को फंसी की सजा मिलने के बाद भी वह वर्षों तक जिंदा रह जाये। एक बार फिर से कंधार जैसी घटना घटे और हमारे दुश्मन उसे आज़ाद करा ले जाएँ।

मुझे तो इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ जब कुछ लोगों ने कसाब को फंसी की सजा न देकर उम्रकैद की सजा दिए जाने की वकालत की। ऐसे लोगों को मैं बता दूँ कि कसाब वैसे लोगों में से नहीं है जो वक़्त के साथ सुधर जाये। वह तो एक ऐसा राक्षस बन चूका है जो इंसानों को खाता है, उनका खून बहाकर ठहाका मारकर हँसता है और उसका वश चले तो उसे भी मार खाए जो उसे खाने को देता है। वास्तव में फंसी की नौबत तो आनी ही नहीं चाहिए थी। याद रहे राक्षसों की हत्या नहीं की जाती, उनका तो वध किया जाता है। जैसे राम ने रावण का वध किया था। वैसे ही कसाब का भी वध किया जाना जरुरी था।

दोस्तों, सब कुछ साफ़ है। दूध का दूध और पानी का पानी हो गया है। इसमें कोई गुंजाईश नहीं कि कसाब एक राक्षस बन गया है। फिर उसकी फंसी में इतना विलम्ब क्यों? क्यों हमारी व्यवस्था उसे लटकाने के लिए एक वर्ष का समय चाहती है? और इसका क्या भरोसा है कि वह एक वर्ष २० वर्षों में न बदल जाये? आरक्षण, अपने हक़, नेताओं की गिरफ्तारी आदि मुद्दों पर तो हम अक्सर सड़कों पर उतर आते हैं, बस जलाते हैं, सार्वजानिक संपत्ति को नुक्सान पहुंचाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि सरकार को हिलाकर रख देते हैं। फिर कसाब के मामले में चुप्पी क्यों? क्यों शांत बैठे हैं हम? मत करो हिंसा, अहिंसात्मक तरीकों से सरकार पर दबाव बनायें। जरुरत पड़े तो कुछ भी करें क्योंकि आज की सरकार थोड़ी बहरी है। उसे ऊँचा सुनने की आदत है। उनके लिए धमाके की जरुरत है।

इससे पहले कि देश एक बार फिर से दहले और फिर से कंधार की पुनरावृत्ति हो, इस राक्षस का वध किया जाना जरुरी है। यदि यह दानव फिर भी बच जाता है तो सही में हमसे महान और कोई नहीं होगा। वही राग अलापते रहेंगे "सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा"। लेकिन धीरे-धीरे एक दिन इस हिन्दुस्तान को ही खो देंगे, और फिर भी रट्टू तोतों की तरह गाते रह जायेंगे - "सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा..."