शनिवार, 29 अगस्त 2009


आडवाणी से भाजपा...


स्वतंत्र भारत के तिन धरोहर, अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर। ऐसा मैंने आज से १५ साल पहले इलाहाबाद में दीवार पर चिपके पोस्टर्स में पढ़ा था। इसमें कोई शक नहीं की आडवाणी का भाजपा के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान रहा है. बहुत बड़ा क्या, हम यों कह सकते हैं की वे शुरू से पार्टी की रीढ़ की हड्डी बनकर रहे हैं. हो सकता है की पिछले कुछ समय से अपनी गतिविधियों को लेकर वे आलोचन के शिकार रहे हैं. पर इससे उनकी कार्यक्षमता पे ऊँगली नहीं उठाई जा सकती.


भाजपा के वर्तमान रजनीतिक संकट को अगर कोई हल कर सकता हैं तो वे आडवाणी ही हैं। उन्होंने इस पार्टी के लिए अपना खून और पसीना बहाया है. जाहिर सी बात है की पार्टी की जितनी चिंता उन्हें होगी, उतनी शायद पार्टी में किसी और को ना हो.


फिर भी गलतियाँ तो उनसे हुई हैं और इसका पश्चाताप तभी हो सकता है, जब वे अपने निजी हितों को एक किनारे रखते हुए, पार्टी की लीडरशिप के बारे में सोचे और योग्य व्यक्ति को मौका दें. पार्टी को एक ऐसे नेता की जरुरत है, जिसका विवादों से कोई नाता ना हो, और सभी उसका समर्थन करें. यह एक जटिल काम है और इसका निर्वाह आडवाणी से बेहतर और कौन कर सकता है.

भाजपा से जो भी नेता बाहर गए हैं, उनमे से अधिकांश पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे हैं। आडवाणी को चाहिए की वे उनके साथ बैठक करें, उनके विचारों को सुने, और उन्हें मनाकर पार्टी में वापस ले आये. उनका पार्टी से जाने का मतलब है - पार्टी को बहुत बड़ा नुक्सान. भाजपा को फिर से संगठित करने का प्रयास आडवाणी से अच और कोई नहीं कर सकता. क्योंकि वो पार्टी की नब्ज हैं. और सही मायने में वही हरेक नेता के राग-राग से वाकिफ हैं.


आडवाणी के साथ भाजपा के जिन नेताओं को निष्कासन झेलना पड़ा है, गलती उनकी भी है। जब आप एक पार्टी के अंदर एक सामान लक्ष्य के पीछे चलते हैं तो विचारों में मतभेद होने के बाद भी एक सामान विचारधारा बनाकर, लक्ष्य को पाने का प्रयास किया जाता है. पार्टी के खिलाफ जाकर बगावत का विगुल बजाना या फिर पार्टी छोड़ कर चले जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है. ऐसा करके आप बस अपने विरोधियों को आपके ऊपर हावी होने का मौका दे रहे हैं. खासकर तब, जब चुनावों में जनता के बिच आपकी पैठ कमजोर हुए है.


संघ को असंतुष्ट करके भाजपा कभी भी आगे नहीं बढ़ सकती। आखिर संघ से ही तो इसकी उपज हुई है. कुछ समय पहले भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संघ को दो टूक जवाब दिया था कि संघ का काम संगठन चलाना है और उनका काम शाषण चलाना. इसीलिए संघ पार्टी के मामलों में हस्तक्षेप ना करे. संघ ने उसके बाद बिलकुल चुप्पी साथ ली. और इसका नतीजा भाजपा ने लोकसभा चुनावों में देख लिया. भाजपा नेताओं को तो गर्व होना चाहिए कि उसके सर पे संघ का हाथ है, जो कभी भी उनकी डूबती नैया को बचा सकता है.


भाजपा ये कतई ना भूले कि देश को कांग्रेस के चंगुल केवल वो ही निकल सकती है। ये जगजाहिर है कि कांग्रेस ने देश के लिए क्या किया है. कांग्रेस सत्ता में वापस आई तो, कहीं न कहीं ये भाजपा कि आपसी कलह का भी परिणाम था. इसीलिए अभी भी समय है. देश कि जनता को भाजपा से जो उमीदें हैं, वह उन पर खडा उतरे.


आडवाणी कि जरुरत हमेशा ही पार्टी को है। पर वो उन्हें भी मौका दें, जो भाजपा को पुनः शीर्ष पर पहुचने का दमख़म रखते हैं, पर अब तक उन्हें यह मौका नहीं मिल पाया है. युवा शक्ति को भाजपा पहचाने, और उसे आज़मां के देखे.


भाजपा के लिए यही सन्देश है:संगठन गढे चलो, सुपथ पर बढे चलो.भला हो जिसमे देश का, वो काम सब किये चलो.

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