भाजपा से जो भी नेता बाहर गए हैं, उनमे से अधिकांश पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे हैं। आडवाणी को चाहिए की वे उनके साथ बैठक करें, उनके विचारों को सुने, और उन्हें मनाकर पार्टी में वापस ले आये. उनका पार्टी से जाने का मतलब है - पार्टी को बहुत बड़ा नुक्सान. भाजपा को फिर से संगठित करने का प्रयास आडवाणी से अच और कोई नहीं कर सकता. क्योंकि वो पार्टी की नब्ज हैं. और सही मायने में वही हरेक नेता के राग-राग से वाकिफ हैं.
आडवाणी के साथ भाजपा के जिन नेताओं को निष्कासन झेलना पड़ा है, गलती उनकी भी है। जब आप एक पार्टी के अंदर एक सामान लक्ष्य के पीछे चलते हैं तो विचारों में मतभेद होने के बाद भी एक सामान विचारधारा बनाकर, लक्ष्य को पाने का प्रयास किया जाता है. पार्टी के खिलाफ जाकर बगावत का विगुल बजाना या फिर पार्टी छोड़ कर चले जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है. ऐसा करके आप बस अपने विरोधियों को आपके ऊपर हावी होने का मौका दे रहे हैं. खासकर तब, जब चुनावों में जनता के बिच आपकी पैठ कमजोर हुए है.
संघ को असंतुष्ट करके भाजपा कभी भी आगे नहीं बढ़ सकती। आखिर संघ से ही तो इसकी उपज हुई है. कुछ समय पहले भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संघ को दो टूक जवाब दिया था कि संघ का काम संगठन चलाना है और उनका काम शाषण चलाना. इसीलिए संघ पार्टी के मामलों में हस्तक्षेप ना करे. संघ ने उसके बाद बिलकुल चुप्पी साथ ली. और इसका नतीजा भाजपा ने लोकसभा चुनावों में देख लिया. भाजपा नेताओं को तो गर्व होना चाहिए कि उसके सर पे संघ का हाथ है, जो कभी भी उनकी डूबती नैया को बचा सकता है.
भाजपा ये कतई ना भूले कि देश को कांग्रेस के चंगुल केवल वो ही निकल सकती है। ये जगजाहिर है कि कांग्रेस ने देश के लिए क्या किया है. कांग्रेस सत्ता में वापस आई तो, कहीं न कहीं ये भाजपा कि आपसी कलह का भी परिणाम था. इसीलिए अभी भी समय है. देश कि जनता को भाजपा से जो उमीदें हैं, वह उन पर खडा उतरे.
आडवाणी कि जरुरत हमेशा ही पार्टी को है। पर वो उन्हें भी मौका दें, जो भाजपा को पुनः शीर्ष पर पहुचने का दमख़म रखते हैं, पर अब तक उन्हें यह मौका नहीं मिल पाया है. युवा शक्ति को भाजपा पहचाने, और उसे आज़मां के देखे.
भाजपा के लिए यही सन्देश है:संगठन गढे चलो, सुपथ पर बढे चलो.भला हो जिसमे देश का, वो काम सब किये चलो.
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