बुधवार, 30 दिसंबर 2009

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क्या, तोड़ दें देश को?



शैलेश कुमार

देश का बंदरबांट का अभियान शुरू हो गया है. तेलंगाना के लोगों ने बाज़ी मार ली है. आप क्यों पीछे हैं? रोटी, कपडा और मकान से पहले तो आपको भी अपना एक अलग राज्य, एक अलग राष्ट्र ही चाहिए ना? आइये, रजिस्ट्रेशन शुरू हो गया है. लाइन में आईयेगा, कम-से-कम यहाँ तो थोड़ा धीरज दिखाइए.

ठीक 40 साल पहले 1969 में लगभग चार सौ लोग अलग तेलंगाना राज्य का सपना दिलों में दबाये ही इस दुनिया से विदा हो गए. माफ़ कीजियेगा, विदा हो गए नहीं, विदा कर दिए गए. इन चालीस सालों में तेलंगाना आन्दोलन तो खैर चलता ही रहा, पर इस पर राजनीतिक रंग भी बड़ा तेजी से चढ़ा. इसी का नतीजा था कि जो तेलंगाना राज्य सैकड़ों लोगों के बलिदान के बाद भी न बन सका, उसे बनाने का फैसला केंद्र सरकार ने 9 दिसंबर 2009 को शाम 7 बजे से रात 11 बजे के बीच चार घंटे में ही ले लिया. दनादन संवाददाता सम्मलेन बुलाकर गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने घोषणा कर डाली कि अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंध्र प्रदेश विधान सभा में प्रस्ताव लाया जायेगा.

बड़े ताज्जुब की बात थी कि आखिर विधान सभा में कांग्रेस इस प्रस्ताव को पारित करवाएगी कैसे? विरोध के स्वर उभरने की पूरी गुंजाइश थी और हुआ भी वही, जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी. पहले तेलंगाना के समर्थन में हंगामा मचा था, अब विरोध में मचा. और जब फिर से गृह मंत्री का बयान आया कि फ़िलहाल कोई नया राज्य नहीं बनेगा और सर्वदलीय बैठक में फैसला लिया जायेगा तो एक बार फिर से आन्दोलन भड़क उठा कि सरकार अपने वायदे के खिलाफ जा रही है.

देखा जाये तो देश में 1953 की स्थिति एक बार फिर से बनती नज़र आ रही है. गौरतलब है कि 56 साल पहले मद्रास में अलग आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाने की मांग को लेकर 58 दिन की भूख हड़ताल पर बैठे पोट्टी श्रीरामुलू की मौत हो गयी थी. तब जाकर नेहरु सरकार ने घुटने टेक दिए और देश में पहली बार भाषा के आधार पर राज्य बनाने की स्वीकृति देकर सरकार ने आन्ध्र प्रदेश राज्य का गठन कर दिया. इसी का नतीजा था कि राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना हुई और देश में पहली बार भाषा के आधार पर राज्यों के गठन को मंजूरी दे दी गयी.

1953 के हालात फिर से ना पनपने पाए, यह सोचकर केंद्र की कांग्रेस सरकार ने टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के 11 दिनों के आमरण अनशन के सामने झुककर पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की 9 दिसंबर की अर्धरात्रि को घोषणा तो कर दी, पर ये न सोचा कि उसके नतीजे क्या होंगे. परिणाम सामने है. इधर सरकार ने घोषणा की नहीं कि गोरखालैंड के लिए लोग आमरण अनशन पर बैठ गए. पिछले एक दशक से सोये नेता जाग गए और देखते- ही-देखते पूर्वांचल, हरित प्रदेश, विदर्भ, बुंदेलखंड सहित 11 नए राज्यों की मांगे सामने आ गयीं. अपने पुतले बनवाकर अमर बनने का ख्वाब टुटा तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी पत्ता फ़ेंक दिया और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश के तीन टुकड़े करवाने पर तुल गयीं. भाजपा से निकले गए जसवंत सिंह को लगा ही था कि उनका राजनीतिक जीवन भी अब उनके बुढ़ापे के साथ बुढ़ापे का शिकार होने जा रहा है, उनके हाथ फिर से गोरखालैंड का मुद्दा लग गया. अजित सिंह जो इतने दिनों तक पाता नहीं कहाँ दुबके हुए थे, अचानक हरित प्रदेश के लिए अपना हिस्सा मांगने बिल से निकल आये.

हालाँकि असमंजस की स्थिति अभी भी बरक़रार है. पृथक तेलंगाना राज्य के गठन में भी बहुत सारी अडचनें हैं. भोगौलिक दृष्टि से हैदराबाद तेलंगाना में आता है. पर याद रहे कि हैदराबाद आंध्र प्रदेश का चेहरा है, जिस पर राज्य सरकार ने न जाने कितना कुछ लुटाया है. ऐसे में फिर वही स्थिति हो जाएगी जो 1953 पोट्टी श्रीरामुलू के साथ हुआ था. आंध्र प्रदेश तो बन गया, पर मद्रास नहीं मिला. यहाँ भी कहीं वैसा ही न हो जाये. चंद्रशेखर राव के हाथ में तेलंगाना तो आ जाये, पर शायद हैदराबाद न आने पाए.

खैर तेलंगाना या अन्य राज्यों के गठन के मुद्दे पर हम बात ही क्यों करें. क्यों देश को तोड़ने की सोचे? सही मायनों में देखा जाये तो राज्यों के गठन का मामला वास्तव में राज्यों के गठन का नहीं रहा है. यह मुद्दा राजनीतिक महत्वाकान्क्षाओं, राजनीतिक और व्यक्तिगत स्वार्थों का बन गया है. सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिए. एक दिन देश का हरेक नागरिक सड़क पर होगा, अपने हिस्से के लिए. रोटी, कपडा, मकान और नौकरी से पहले उनकी मांग होगी अपने लिए एक अलग देश, एक अलग राज्य की.

बात में दम है. एक राज्य के लिए करोड़ों लोग सड़क पर उतर आये हैं. हो-हल्ला मचा रहे हैं, मार-काट तक को तैयार हैं. लेकिन महंगाई को लेकर कोई बवाल नहीं है. सरकारी स्कूलों में मास्टर नहीं आते, उसे लेकर क्रोध नहीं है. हर रोज़ महिलाओं के साथ छेड़खानी होती है, गाँव-गाँव में बलात्कार होते हैं, उसे लेकर कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उसे ले कर कोई बोलने वाला नहीं है. नौकरी के लिए पढ़े-लिखे लोग तरस रहे हैं, पर सरकार से कोई पूछने वाला नहीं है. लेकिन राज्य न मिला तो जान देने और लेने को भी तैयार है. सलाम है जनता की इस सोच को.

तोड़ डालो देश को. जी हाँ, देश का टूटना जरुरी है. जितने टुकड़े होंगे, उतनी आसानी से शासन चल पायेगा. कानून-व्यवस्था बनाये रखने में मदद मिलेगी. वैसे भी हमारे राज्य बहुत बड़े-बड़े हैं. मध्य प्रदेश में यूरोप के कम-से-कम 12-13 देश समां जाएँ. कुछ ऐसा ही महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक आदि के भी साथ है.

राज्य पुनर्गठन आयोग का फिर से नए सिरे से गठन किया जाना चाहिए. पर इस बार बंटवारे का आधार भाषा या संप्रदाय न हो. इससे केवल राजनेताओं के स्वार्थ की पूर्ति हो पायेगी. यह विकास नहीं, बर्बादी का आधार होगा. बंटवारा होना चाहिए लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखकर, यह देखकर कि उस बंटवारे उस क्षेत्र का विकास कितनी तेजी से हो सकता है. तब जाकर राज्यों के बंटवारे की समस्या भी सुलझेगी और सही मायने में विकास का चक्र भी चल पायेगा.

विकास की जो गति टेक्नोलोजी और संचार के क्षेत्र में देखी जा रही है, उसी रफ़्तार में विकास लोगों की सोंच में भी दिखना जरुरी है. तभी सरकार ने जितनी तत्परता राज्यों के गठन जैसे मुद्दों में दिखाई है, वही तत्परता विकास के मसलों में भी नज़र आएगी.

तो फिर क्या राय है आपकी? तोड़ दिया जाये देश को.....???

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