गुरुवार, 1 जनवरी 2009


अनकही

घर की चारदीवारी के अन्दर बैठा

सोच रहा हूँ मैं यही।

क्यों बाहर आ रही नही

जो थी अब तक अनकही।

ताज़ा हो रही सारी यादें

रूठने मानाने की वो बातें।

हँसी, मजाक और विषाद की

न जाने कितनी सौगातें।

जब भी उसे अकेला पाया

निभाया मैंने उसका साथ।

पर जब कहने का मौका

छोरा उसने मेरा हाथ।

फिर से वो अनकही बातें

अनकही ही रह गई।

सारे अरमान और इच्छाएं

अधूरी की अधूरी रह गई।

अपने दिल को समझाया मैंने

बर्बाद क्यों करते हो जीवन?

क्या तुम बार बार पाओगे

प्यारा इतना सरल सा जीवन?

महीने गुजरे साल गुजर गए

बातें यादों में बदल गई।

लेकिन अनकही उन बातों की

कसक क्यों दिल से नही गई।

अब समझ आ रहा मुझको

नहीं पाउँगा चैन तब तक।

कह दू न वो सारी बातें

जो कही नहीं मैंने अब तक।

पर कैसे कह दूँ उसे आज मैं

वो सारी बातें अनकही।

मेरी प्रेरणा, मेरी प्रार्थना

मेरे पास ही नहीं रही।

चली गई वो मुझसे दूर

यहाँ नहीं वो कहीं नही।

बातें रह गई मेरे दिल में

अनकही, अनकही, अनकही।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Man gaye ustand ...........

Aadi ने कहा…

All The Best A good bard!

vikalp thinking ने कहा…

कैसे कहूँ मै ये सारी बाते की कितनी अच्छी आपकी अनकही
दिल को छू गयी आपकी अनकही