शनिवार, 29 अगस्त 2009

आडवाणी अब ले ही डूबेंगे...
कभी कांग्रेस का विकल्प बनकर भारतीय राजनीति में उभरी भारतीय जनता पार्टी को देखकर आज कोई नहीं कह सकता की भारतीय राजनीति में यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधित्व करता है। भाजपा के नेताओं को देश में अधिक सम्मान इसीलिए प्राप्त है की इनमे से अधिकांश नेता संघ की पृष्ठभूमि से आए हैं। और संघ के स्वयंसेवक अपने अनुशासन के लिए जाने जाते हैं।

भाजपा के वर्तमान स्वरुप को देखकर विश्वाश ही नहीं होता कि ये वही भाजपा है जो जनसंघ से निकल कर आई है। और जिसने देश को श्यामा प्रसाद मुख़र्जी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महान नेता दिए हैं।

आडवाणीजी पर तो मुझे तरस आता है। इतने दिन तक राजनीति में रहकर भी अभी तक सत्ता का मोह गया नहीं। अपनी उम्र तक का उन्हें अब लिहाज़ नहीं रहा है। और शायद यही वजह है कि वे अपनी हरकतों से बार-बार विवादों के घेरे में आ जा रहे हैं।

आडवाणीजी तो संघ के प्रचारक रह चुके हैं। एक प्रचारक को दुनिया कि सुख सुविधाओं का कोई मोह नहीं होता। वह तो सिर्फ़ समाज के लिए ही जीता है और गुमनामी कि ज़िन्दगी जीकर मर भी जाता है। फिर आडवाणीजी में क्यों नहीं दिखती वह बात? यदि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा का कोई ख्याल नहीं रहा तो कम से कम संघ कि प्रतिष्ठा को तो तार-तार वे ना करें।


एक उदहारण देता हूँ आपको। यदि आपको याद हो तो ये वही आडवाणी हैं जो कभी बाबरी मस्जिद को बाबरी मस्जिद नहीं, एक विवादित ढांचा कहकर पुकारते थे। पर चुनाव के समय उनके सर पर प्रधानमंत्री बनने का ऐसा भूत सवार हुआ कि वे अब इसे बाबरी मस्जिद कहकर पुकारने लगे। इसे कहते हैं सत्ता का मद। इसके लिए वे अपने सिद्धांतों को भी भूल गए।

आज जब पार्टी टूट के कगार पर जा पहुची है, उसके बावजूद आडवाणी कि तरफ़ से इस कलह को खत्म करने का कोई ठोस प्रयास नही दिख रहा। अभी भी इनका इगो इन्हें वैसे कदम उठाने से रोक रहा है, जो पार्टी के हित में हों। आपको बता दूँ कि ये जिन्ना का भूत नहीं है जो सबको परेशान कर रहा है। ये जिन्ना तो भाजपा को बस एक बहने के रूप में मिल गया है। अगर जिन्ना का ही मुद्दा होता तो जसवंत के निष्कासन कि नौबत कभी नहीं आती, क्योंकि जिन्ना के बारे में आडवाणी का बयां जसवंत की किताब में लिखे वचनों से कहीं ज्यादा खतरनाक था। दरअसल आडवाणी को आभास हो गया था कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता पार्टी में बदलाव लेन कि कोशिश कर रहे हैं। और यदि ऐसा होता तो इसका सीधा मतलब था आडवाणी के हाथ से पार्टी का निकलना।

ऐसे में आडवाणी ने राजनाथ और कुछ अन्य के साथ मिलकर आवाज़ बुलंद कर रहे नेताओं को बाहर निकलने कि थान ली। और संयोग से जिन्ना प्रकरण ने उन्हें सही अवसर भी दे दिया। जसवंत सिंह, अरुण शौरी जैसे सिर्शस्था नेताओं का पार्टी से निकला जाना भाजपा के पतन का द्योतक है। वे केवल नेता ही नहीं, बल्कि कुशल विचारक और विद्वान भी हैं। निरक्षर नेताओं की भीड़ के बीच देश को ऐसे नेताओं कि जरुरत है।

संघ लगातार कहता आ रहा है कि पार्टी को युवा नेताओं को मौका देना चाहिए। पर आडवाणी जिन्हें अपनी कुर्सी कि पड़ी है, उनकी कानों पर जू तक नहीं रेंग रही। संघ ने भी इस मामले से अपने पैर पीछे खिंच लिए हैं। अब भाजपा कि नैया बीच मंझधार में डोलती नज़र आ रही है। अभी भी अगर आडवाणी अपनी ही जिद पर अडे रहे तो अब भाजपा के पतन को कोई रोक नहीं पायेगा। कांग्रेस कि इस्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है। इसका मुकाबला ऐसी बिखरी हुई पार्टी कभी नहीं कर सकती।

आडवाणीजी अभी भी वक्त है। संभल जाए। नहीं तो आप तो डूबेंगे ही, इतने मेहनत से तैयार कि पार्टी को भी ले डूबेंगे।

3 टिप्‍पणियां:

vikalp tyagi ने कहा…

wriiting is good matter too but dont be so rude for anyone as a journalist be in balance u r looking like damn opposit of bjp

saurabh"prince" ने कहा…

bro acha likha hai per thoda balance hona chahiye jyada harsh ho gaya hai...

Shailesh Kumar ने कहा…

Sahmat hun aap logo ki tipanni se. Par mai apne oosolon se compromise nahi karta patrakarita me. Balance karne ka koi matlab hi nahi banta yahan pe. Not only BJP, I write about everyone. And I am pro BJP.... But I was forced to write like this.