सोमवार, 2 नवंबर 2009

जब राजधानी ही असुरक्षित हो?

शैले कुमार

लगभग दो हफ्ते पहले मथुरा रेल दुर्घटना के बाद मैंने रेलवे की मंगलमय यात्रा पर सवालिया निशान लगाते हुए एक लेख लिखा था, जिस पर पाठकों की अलग-अलग प्रतिक्रिया सामने आई. आपको बता दूँ कि इन दो हफ्तों के भीतर भारतीय रेलवे दो बार अपनी ढील-ढाल वाले रवैये की वजह से फिर से सुर्खियाँ बटोरती नज़र आई.

पश्चिम बंगाल के झारग्राम में राजधीनी एक्सप्रेस को रोककर पूरे पांच घंटे तक अपने कब्जे में रखकर माओवादियों ने अपनी ताकत एक बार फिर से पूरे देश को दिखा दी. ताज्जुब की बात ये रही कि राजधानी एक्सप्रेस, जिसका किराया हरेक वर्ष हवाई यात्रा के किरायों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है, उस ट्रेन में भी सुरक्षा के पुख्ते इंतजामात नहीं थे. वो भी तब जब माओवादियों ने राज्य में उत्पात मचाया है.

लेकिन एक बात हज़म नहीं होती. माओवादियों ने इतनी देर तक ट्रेन को रोककर रखा, पर किसी भी यात्री को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया. साथ ही पांच घंटे तक रेलवे पुलिस के जवान ट्रेन तक नहीं पहुच सके थे. और जब वे पहुचे भी तो बिना किसी खून खराबे के ट्रेन को माओवादियों के चंगुल से चुरा लिया गया.

यहाँ पर प्रदेश में सत्तारूढ़ सीपीअईएम् द्वारा रेल मंत्री ममता बनर्जी पर लगाये गए आरोपों में दम तो नज़र आ रहा है. माओवादी अपने जिस नेता छत्रधर महतो को छोड़ने की मांग कर रहे थे, उसे ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त है. साथ ही खड़गपुर में रेलवे सुरक्षा बल के जवानों ने अचानक ट्रेन क्यों छोड़ दी और राजधानी जैसी ट्रेन को बिना सुरक्षा बल के कैसे रवाना कर दिया गया?

ममता के सहयोगी शिशिर अधिकारी को इस बात की जानकारी थी कि राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाया जा सकता है. ऐसे में आखिर उन्होंने रेल मंत्रालय या गृह मंत्रालय को सूचित करना उचित क्यों नहीं समझा? ऐसी बहुत सी बातें हैं जो ममता को कटघरे में खडा कर रही हैं.

सभी जानते हैं कि कुछ समय पहले बंगाल में नैनो के आने के समय तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने कैसा बखेरा खडा किया था. सत्ता में आने की उसकी हर कोशिश अब तक नाकाम रही है. ममता पर तो सत्ता का नशा इस तरह सवार है कि वो कभी एनडीए तो कभी यूपीए के साथ नज़र आती है. कहने का मतलब है, जिधर मिला धन और चैन, उधर ही दौड़ गए नयन. ऐसे में अगर यह कहा जाये कि राजधीनी वाली घटना के पीछे कहीं न कहीं रेल मंत्री का भी हाथ है, तो इसमें ज्यादा संदेह वाली बात नहीं है. खैर जाँच जारी है. भले ही उसका निष्कर्ष कभी सामने ना आये.

सीपीअईएम् भी कोई साफ सुथरी नहीं है. बहाना तो खैर उसे भी मिल गया है बहती गंगा में हाथ धोने का. इसी बहाने आरोप प्रत्यारोप के बहाने वह मौके को थोडा भुनाने में लगी है. राजधानी प्रकरण को भी लेकर एक जबरदस्त राजनीतिक खेल चल रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

पर इसका खामियाजा भुगत रही है आम जनता. वही जनता जो घंटों लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदती है और उसके बाद भी समय से और सुरक्षित तरीके से अपना सफ़र पूरा नहीं कर पाती. कभी लटक कर यात्रा करती है, कभी रेल दुर्घटना में मरती है, तो कभी डकैती का शिकार होती है. कुछ भी हो पर, पिसती आम जनता ही है. पर अब तो चिंता और भी बढ़ गयी है. दूसरी ट्रेनों का क्या होगा, जब राजधानी ही असुरक्षित हो?


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