शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

'कुपोषित' देश की 'धार्मिक' राजनीति



शैलेश कुमार

गड़े
मुर्दे को एक बार फिर से खोद कर बाहर निकाल दिया गया है. 17 साल पुराना बाबरी मस्जिद कांड फिर से जहाँ मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहा है, वहीं इसने दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इन ठंडी के दिनों में भी जबरदस्त गर्मी पैदा कर दी है.

सबसे पहले तो 17 साल पहले 16 दिसंबर 1992 को गठित लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट के लीक होने के बाद संसद के दोनों सदनों में खूब बवाल मचा और उसके बाद जब रिपोर्ट आखिरकार संसद में पेश कर दी गयी तो जो कुछ भी संसद के अन्दर देखने को मिला, उसने देश को एक बार फिर से शर्मशार कर दिया. पूरी दुनिया ने टेलीविजन स्क्रीन पर उस भारत के प्रतिनिधियों को धक्का-मुक्की और गाली-गलौज करते हुए देखा, जिसने हमेशा से विश्व को शांति और अहिंसा का पाठ पढाया है और जिसकी वैश्विक समुदाय के बीच गहरी पैठ बनी है.

जस्टिस लिब्राहन ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिन्दू परिषद् (वीएचपी) और इससे जुड़े अन्य संगठनों को 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है. बेदाग छवि वाले राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा के अन्य बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक कुप.सी. सुदर्शन, भाजपा से निष्काषित नेता कल्याण सिंह और उमा भारती आदि को भी इस मामले में मुख्य अभियुक्त के तौर पर आरोपित किया गया है. लेकिन जो सबसे बड़ा बवाल मचा है, वो इस बात को लेकर है कि आखिर अटल बिहारी का नाम इसमें क्यों घसीटा गया? भाई कानून सभी के लिए एक समान होता है. अगर नाम आया है तो कुछ तो जरुर होगा. सच्चे होंगे तो बचेंगे, नहीं तो सजा मिलेगी. इसमें हो-हल्ला क्यों?

रिपोर्ट तो सामने आ गयी पर इस रिपोर्ट में कितनी सच्चाई है, यह बताना ज्यादा मुश्किल प्रतीत नहीं होता. पूरे रिपोर्ट में केवल एक कांग्रेसी नेता का नाम है, जो हैं शंकर सिंह वाघेला. पर ध्यान रहे कि वाघेला भी भाजपा से ही कांग्रेस में आये हुए हैं. अप्रत्याशित रूप से पूरे प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री और दिवंगत कांग्रेसी नेता पी.वी. नरसिंह राव को क्लीन चीट दे दी गई है. उन्हें यह कहते हुए निर्दोष बताया गया है कि भाजपा ने केंद्र सरकार को अँधेरे में रखा. केंद्र सरकार को सूचित किया गया कि विवादित ढांचे पर केवल पूजा-अर्चना की जाएगी. लेकिन हकीकत में उनकी योजना बाबरी मस्जिद को ढहाने की थी.

लेकिन ऐसा कैसा हो सकता है? अंदरूनी रिपोर्ट्स बता रहे हैं कि राव को इस बात की पूरी-पूरी जानकारी थी. बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद उन्होंने एक पत्रकार से कहा भी था, 'अच्छा हुआ बला टल गयी'. फिर भी लिब्राहन की रिपोर्ट पर यकीन करें तो क्या हम यह मान लें कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र, सारी बड़ी गुप्तचर एजेंसियां उस समय हाथ-पे-हाथ धरे बैठी रह गयी. पूरे देश भर में बाबरी मस्जिद को गिराने जैसी इतनी बड़ी योजना बनती रही और उन्हें भनक तक नहीं लगी?

कल्याण सिंह, लाल कृष्ण आडवाणी, उमा भारती और सुदर्शन जिस प्रकार से अपनी हरकतों पे गर्व महसूस कर रहे हैं, उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. उसके पीछे हिन्दू समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो आज भी शायद उनके एक इशारे पे खून देने और खून बहाने पर आमादा हो सकता है. 16वीं सदी में बाबर द्वारा बलपूर्वक बनाये गए बाबरी मस्जिद में 22 दिसंबर 1949 को हिन्दुओं ने रामलला की मूर्ति स्थापित करके इस विवाद को सदियों बाद जन्म दिया था. हालाँकि उस समय अदालत ने दो समुदायों के बीच पनपे झगडे को देखते हुए इसे विवादित स्थल करार देते हुए, इसे बंद कर दिया था. 1 फ़रवरी 1986 को फैजाबाद सेशन कोर्ट ने इसे हिन्दुओं के लिए पूजा करने को खोल दिया था. 9 नवम्बर 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने भी इस स्थल पर शिलान्यास समारोह आयोजित करने की अनुमति दे दी थी. हाँ इस बात से तो सभी वाकिफ हैं कि आखिर इसके पीछे उनकी मंशा क्या थी.

आरएसएस, वीएचपी और भाजपा के नेताओं को अपने किये पर गर्व है. मुझे नहीं लगता कि किसी प्रकार की सजा उन्हें बदल सकती है. इसका परिणाम इससे कहीं जयादा भयानक हो सकता है. एक पूरा समुदाय इस बात पर भड़क सकता है. और जब तक आप किसी को सुधार नहीं सकते, उसकी गलतियों का उसे एहसास नहीं करवा सकते, तो वो सजा ही किस काम की है? खासकर ऐसी सजा जिसके एवज में देश को फिर से एक बार सांप्रदायिक दंगो की आग में जलकर एक बड़ी कुर्बानी देनी पड़ सकती है?

और हम कभी ये सोचने की कोशिश क्यों नहीं करते कि आखिर इस मसले का हाल क्या है? ये बात जगजाहिर हो चुकी है कि अयोध्या का यह विवादित स्थल हिन्दुओं के पूजनीय श्रीराम का स्थल हुआ करता था. बाबर के समय यहाँ पर बाबरी मस्जिद बनवाई गयी थी. इन सब बातों को अलग रखकर भी सोचे तो हमें एहसास होगा कि मुस्लिम भाइयों के लिए जो महत्व मक्का-मदीना का हुआ करता है, सदियों से इस स्थल का यही महत्व हिन्दुओं के लिए रहा है. जिस प्रकार से देश-विदेश से हिन्दुओं का जत्था नियमित रूप से इसे तीर्थ स्थल मानकर यहाँ पर पहुचता रहता है, वैसे मुस्लिमों का हुजूम यहाँ नहीं उमड़ता. इससे काम-से-काम यह तो साफ़ है कि किसके लिए यह धर्म की आस्था का सवाल है, और किसके लिए केवल प्रतिष्ठा का? ऐसे में एक बार इस स्थल को एक ही समुदाय को सौंपकर इसका हाल क्यों नहीं निकाल लिया जाता? किसी एक पक्ष को झुकने की जरुरत है. जब मुस्लिम भाइयों को पाता है कि हिन्दुओं की इस स्थल से कितनी आस्था जुडी है तो वे एक छोटी सी क़ुरबानी क्यों नहीं दे देते? धर्मनिरपेक्ष देश कहलाते हुए भी इस देश में उन्हें अल्पसंख्यक का दर्ज़ा देकर विशेष अधिकार दिए गए हैं. तो क्या शांति के लिए वे पीछे नहीं हट सकते?

यही सवाल हिन्दुओं के लिए भी है. राम मंदिर अकेला मंदिर नहीं है देश में. ये बात जरुर है कि श्री राम की जन्मस्थली होने की वजह से उनकी इस भूमि से आस्था जुड़ी है. पर उन्हें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. उन्होंने हमेशा से ही अच्छाई, भाई-चारा और शांति को प्राथमिकता दी है. ठीक है, आप वहां पे मंदिर बनाने के लिए संघर्ष करें. पर एक-दूसरे का रक्त बहाना कहाँ तक उचित है? थोड़ा समझौता कर लें तो आप छोटे थोड़े ही पड़ जायेंगे? मंदिर के साथ थोड़ी दूरी पर मस्जिद को भी बनने की जगह दे दीजिये.

हिन्दू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद की बातों को लेकर आखिर कब तक लड़ते रहेंगे? अपने आप को भारतीय कहना कब सीखेंगे? अरे भाई, हमारे दुश्मन हमारी फूट का ही हमेशा से फ़ायदा उठाते रहे हैं. तो क्यों न हम अपनी एकता दिखा उन्हें मुहतोड़ जवाब दें?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में धर्म की भी बड़ी अहमियत है. हर धर्म को अपनी रक्षा करने का पूरा-पूरा अधिकार है. खासकर हिन्दुओं के लिए, जिनका सबसे बड़ा हिस्सा भारत में ही बसता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि लड़-झगड़ के और खून बहाकर ऐसा किया जाये. देश में कायदे-कानून भी हैं. अब ये मत कहना कि भला वे कितने प्रासंगिक हैं? मत भूलिए कि उन्हें अप्रासंगिक बनाने के पीछे भी हमारी ही निष्क्रियता छिपी है.

यदि धर्म की ही रक्षा करनी है तो देश के विभिन्न भागों में जबरन किये जा रहे धर्म परिवर्तन पर रोक लगायी जाये. लड़ाई का बिगुल उन शक्तियों के विरुद्ध फूंका जाये जो धर्म का असली मतलब नहीं जानते और लोभ-लालच व हिंसा के रास्ते से इसे प्रदूषित करने की कोशिश करते हैं, इस पर कालिख पोतने की कोशिश करते हैं. कुछ दिनों पहले केरल और बेंगलुरू में इस प्रकार के गिरोह का पर्दाफाश हो चुका है.

मंदिर-मस्जिद का नाम लेकर जो लोग देश की एकता को विखंडित करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में हिन्दू-मुस्लिम हमेशा से ही दो भाइयों की तरह रहे हैं. हाँ लोगों की सोच पर मीडिया का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है, जिसने दोनों ही धर्मों के संगठनों के चेहरे को हमेशा से ही तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने पेश किया है. उदाहरण के तौर पर आरएसएस को हमेशा इस रूप में पेश किया गया कि वो एक हिन्दू संगठन है जो केवल हिन्दुओं की भलाई चाहता है और मुस्लिमों के खून का प्यासा है. ये एक कट्टर हिन्दू संगठन है. पर इस बात को मीडिया ने कितनी बार लोगों को बताया कि आरएसएस की शाखाओं में आज भी सुबह-शाम बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक को हर रोज़ देश से प्यार करना सिखाया जाता है. उन्हें प्रेरक-प्रसंग, सुभाषित, बौद्धिक, स्वदेशी खेलों आदि के माध्यम से भारत की भूमि से जोड़े रखने का प्रयास किया जाता है. आज के समय में कितने संगठन निःस्वार्थ भाव से ये काम कर रहे हैं?

एक और बात, आरएसएस की शाखाओं में केवल हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम भी जाते हैं. आरएसएस अगर हिन्दू राष्ट्र की बात करता है तो 'हिन्दू' शब्द से उसका ये तात्पर्य नहीं कि यह केवल हिन्दुओं का देश है. 'हिन्दू' शब्द तो उन तमाम लोगों के लिए है जो इस देश से प्यार करते हैं, खुद को पहले भारतीय मानते हैं, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लिम, या फिर सिख या ईसाई.

उस तरह से पिछले कुछ समय से मुस्लिमों को इस देश में संदेह की नज़रों से देखा जाने लगा. हर मुस्लिम चेहरे में लोगों को आतंकवादी ही झलकने लगा था. लेकिन यहाँ भी बता दूँ कि ये लोगों के द्वारा बनाई गई चीज़ नहीं थी. मीडिया ने उन्हें ऐसा मुखौटा पहनाकर लोगों के सामने पेश किया था. पर इस बात को कितने मीडिया संगठनों ने दिखायाकि देश में जब भी कोई विपदा आई है, मुस्लिम संगठनों ने पीड़ितों की सहायता के लिए पूरा प्रयास किया है. बिहार में जब कोशी उफान पे थी और करोड़ों परिवारों को निगल रही थी तो उस समय भी वहां से हजारों मील दूर बेंगलुरु, त्रिवेंद्रम, चेन्नई और मंगलौर में मुस्लिम संगठन उनके लिए कपड़े, पैसे व जरुरत की अन्य चीजें दिन-रात एक करके इकठ्ठा कर रहें थे. ये सब कहीं न कहीं हमारी एकता का परिचायक है.

वक़्त बदला है, अब अपना नजरिया बदलने की भी जरुरत है. खामियां हर जगह होती हैं, पर उसके साथ बहुत सी अच्छाईयां भी होती है. तो क्यों न हम अच्छाईयों पर केवल ध्यान दें, ताकि हम सब एक खुशहाल ज़िन्दगी जी सकें?

मालूम हो कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को तैयार होने में आठ करोड़ से भी ज्यादा रूपये खर्च हुए हैं. मत भूलिए कि ये आठ करोड़ रूपये हमारे हैं. हमारे सत्तालोलुप राजनेता हमारी फूट, हमारी सोच और हमारी भूल का फ़ायदा उठाकर अपना जेब भरने में लगे हैं. वो कभी नहीं चाहेंगे कि हम एकजुट हों.

पर सोचिये वो आठ करोड़ रूपये उस काम पर खर्च किये गए, उस बात को सामने लाने पर व्यय किये गए, जो कि लोगों के सामने 17 वर्ष पहले भी थी. और अब जो रिपोर्ट इतने सारे पैसे खर्च होने और इतने लम्बे अंतराल के बाद सामने आई है, वो भी बेदाग नहीं है. अभी भी कुछ नहीं होने वाला. फिर से नयी जाँच कमिटी बैठेगी अब इस रिपोर्ट की जाँच के लिए. फिर उसका जो निष्कर्ष आएगा, उसकी जाँच के लिए भी कमिटी बनेगी. केवल कमेटियां ही बनती रहेंगी पर कभी इसका कोई परिणाम नहीं निकलेगा.

मित्रों, आठ करोड़ रूपये इस कुपोषित देश की गरीब जनता पर भी खर्च किये जा सकते थे. और बात सिर्फ आठ करोड़ रूपये की नहीं है. हजारों ऐसे घोटाले हैं जिनमे न जाने देश के यानि कि हमारे कितने ही करोड़ रूपये डूबे हुए हैं. मधु कोड़ा का 15 हज़ार करोड़ से अधिक का घपला के अलावा टेलिकॉम इंडस्ट्री का भी घपला हुआ है, जो शायद आज तक के सभी घोटालों को पीछे छोड़ दे. पर मामले को दबा दिया गया है.

गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, सम्प्रदायवाद, सूखा, बाढ़, लूट-खसोट आदि हमारे नेताओं के लिए वास्तव में समस्याएं नहीं हैं, वे तो इनके हथियार हैं, जिन्हें वे अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं. तो वे क्यों फिर इन समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करेंगे? उन्हें तो बस अपना उल्लू सीधा करना है. इसके लिए वे अपने देश, अपने लोग और जरुरत पड़ी तो अपने रिश्तेदारों का भी खून बहा सकते हैं, उन्हें पी सकते हैं.

अब भारत वह भारत नहीं रहा जो वह 1947 से पहले हुआ करता था. पीढियां बदल गयी हैं. दुनिया की दौड़ में टिके रहने के लिए अब खुद को विकसित करने की जरुरत है. यह विकास केवल काम में ही नहीं, हमारी सोच में भी होने की जरुरत है. मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों से बाहर निकल उन विकल्पों के बारे में सोचने की आवश्यकता है जो गरीबी उन्मूलन में मदद करे. ऐसे विकल्पों को तलाशने की जरुरत है जो अशिक्षा के अंधकार को दूर कर वहां ज्ञान का प्रकाश फैलाये, वृहद् उद्योगों के साथ लघु व कुटीर उद्योगों को भी फलने-फूलने में मदद कर बेरोजगारी को दूर भगाए और साथ-ही-साथ कृषि को प्रोत्साहन देकर किसानों और गांवों का वजूद जिंदा रख सके.

राम और खुदा हमेशा दिलों में रहें पर हमारे काम में विकास झलके, यही सच्चे भारत की पहचान होगी.

संपर्क: shaileshfeatures@gmail.com

1 टिप्पणी:

TARUN ने कहा…

शायद आज यक तथ्यों का इतने सहज भाव और ईमानदारी के साथ किसी भी धर्म संगत लेख में उल्लेख नहीं किया गया है.एक पत्रकार की भूमिका इन सवेंदेंशील विषयों को लेकर क्या होनी चाहिए यह मीडिया जगत के वरिस्थ पत्रकार शैलेश से सीखें.कई बार ख़बरों को सनसनीखेज बनाने से ज्यादा ज़रूरी उनकी सवेंदेंशिलता को समझना होता है.